Sharad Sharma, Reporter, NDTV

Sharad Sharma, Reporter, NDTV

Monday, 19 May 2014

नतीजे का वो दिन



शुक्रवार का दिन था , तारीख 16 मई 2014
मैं अपने कैमरापर्सन के साथ सुबह 5 बजे अपने ऑफिस से आप के दफ्तर के लिए निकला
करीब 5:30 बजे मैं जब वहां पहुंचा तो मुझे वहां उम्मीद से कम लोग और बहुत काम मीडिया नज़र आया
यहाँ मैं 8 दिसंबर के दिल्ली विधानसभा के नतीजे वाले दिन से तुलना कर रहा था
मुझे लगा मैं ही जल्दी आ गया हूँ
फिर मैंने थोड़ा और इंतज़ार किया और उम्मीद करी कि कम से कम पार्टी के वालंटियर्स या कार्यकर्ता तो आ जाए हाथ में झाड़ू लेकर
क्योंकि चुनावी माहौल कार्यकर्ताओं के जोश से ही बनता और दिखता है , रंग उसी से आता है

वक़्त गुज़रता गया लेकिन कोई ख़ास संख्या ना ही कार्यकर्ताओं की दिखाई दी और न ही मीडिया की
वोटों की गिनती शुरू हुई, कुछ पुराने कार्यकर्ता दिखने शुरू हुए
सब इंतज़ार कर रहे थे कि अपनी पार्टी की भी कोई सीट आये
सबकी आँखें वहां लगे टीवी स्क्रीन पर जमी हुई थी
बहुत देर इंतज़ार करने पर भी खाता नहीं खुल रहा था , तो कार्यकर्ता चैनल बदल बदल कर देखने लगे शायद इस चैनल पर नहीं तो उस चैनल पर हमारी पार्टी को सीटें मिल रही होंगी लेकिन सीटें चैनल नहीं देता जनता देती है ये  भूल रहे थे

धीरे धीरे कुछ सीटें मिलनी शुरू हुई तो कुछ चेहरे खिलते दिखाई दिए लेकिन जब पार्टी दिल्ली की सभी सीटों पर हारती दिखी तो सबके चेहरे मायूस हो गए
कुछ कार्यकर्ता मायूस मन से कहने लगे कि चलो यार कोई नहीं जो जीतें हैं उन बीजेपी के दोस्तों को बधाई तो दे दो
मैं इस सब को देख रहा था और सोच रहा था कि कितना अंतर था 8 दिसंबर में और 16 मई में
उस दिन वहां जश्न था , आज मायूसी थी
उस दिन सब नाच गा रहे थे लेकिन आज सबका मन अंदर से रो रहा था
उस दिन वहां सब झाड़ू हाथ में लेकर झूम रहे थे लेकिन आज झाड़ू दिख भी नहीं रही थी किसी के हाथ में


सोचता हूँ कि अगर पार्टी अच्छा नहीं कर पायी तो इनकी क्या गलती ?
इन्होने तो पूरे मन से पार्टी के लिए काम किया, प्रचार किया तो आज इनको ये सब क्यों देखना पड़ा?
और बात केवल आम आदमी पार्टी की नहीं और ना ही ये बात केवल इस एक चुनाव की है


किसी भी पार्टी का कार्यकर्ता उस पार्टी की जान होता है
जो ज़मीनी स्तर पर पार्टी को खड़ा करता है , पार्टी अच्छा करती है तो सब बधाई देते हैं लेकिन अच्छे काम ज़्यादा होते कहाँ है उम्मीदें इतनी ज़्यादा होती है कि बधाई कम ही आती हैं लेकिन कुछ गलत करने पर कार्यकर्ता ही जनता की नाराज़गी का सामना करता है
अपने नेता की रैली करानी हो तो वो दिन रात काम करता है, जनता को पकड़ पकड़ कर लाता है कि आओ हमारे नेताजी को सुनो

आज के समय में जनता को रैली में लेकर आना सबसे मुश्किल काम है
यही नहीं टीवी और अखबारों में जो अलग अलग पार्टियों के नेताओं में ज़ुबानी जंग छिड़ती है
उसका शारीरिक और गाली गलोच वाला संस्करण कार्यकर्ता को झेलना पड़ता है

इसको ऐसे समझें कि अगर मुलायम सिंह यादव ने बहन मायावती के लिए या अरविन्द केजरीवाल ने नरेंद्र मोदी के लिए कुछ बोला तो इनका बयान तो राजनीती कहलायेगा लेकिन इसको लेकर जब गल्ली मोहल्ले और चाय की दूकान पर सपा-बसपा या बीजेपी-आप के कार्यकर्ताओं में  में बहस चलती है तो माताओं बहनों को खूब याद किया जाता है , और बात यहीं नहीं खत्म हुई तो किसकी  बॉडी में कितना दम है ये आज़माने का काम शुरू हो जाता है
हालांकि होते ये सब पडोसी या दोस्त ही हैं जो लम्बे समय से एक दुसरे को जानते हैं लेकिन क्या करें अपनी पार्टी और नेता के बारे में ज़्यादा सुन नहीं सकते

असल में कार्यकर्ता (ज़्यादातर) अपनी पार्टी की विचारधारा और अपने एक नेता से जुड़ा होता है
उसको लगता है ये ही अच्छी विचारधारा है , ये ही अच्छा नेता है जो हमारा या सबका भला करेगा
हालांकि कुछ कार्यकर्ता पेड भी होते होंगे लेकिन ज़्यादातर भावनात्मक रूप से पार्टी से जुड़े रहते हैं
चुनाव के दौरान  अपनी पार्टी के लिए जी जान लगा देते हैं , जाने कितने दिन घर नहीं जाते
कहाँ कहाँ कैसे कैसे रहते हैं लेकिन बस चाहते हैं कि उनकी पार्टी जीत जाए
कभी हिस्से में जीत आती है तो नाचकर झूमकर अपने नेता की एक झलक देखकर ,
एक बार हाथ मिलाकर , एक फोटो खिंचवाकर , पैर छूकर  अपनी ख़ुशी का इज़हार करके घर चला जाता है
और अगर पार्टी हार जाती है तो चुप चाप एक हिसाब लगाते हुए कि कहाँ गलती हुई हम लोगों से जो हम हार गए
रिक्शा पकड़कर , बस में बैठकर , मेट्रो में चढ़कर या ऑटो लेकर घर चला जाता है

लेकिन मैं ये सोचता हूँ कि किसी भी पार्टी की जीत या हार का ज़िम्मेदार कार्यकर्ता कैसे हो सकते हैं
वो तो बस वो काम करते हैं जो और जैसा उनको कहा जाता है करने के लिए पार्टी की तरफ से
और पार्टी के कहने का मतलब है नेता का कहना
कार्यकर्ता फैसला नहीं करते , फैसला नेता करता है

अगर पार्टी जीत जाए तो प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री तो नेता ही बनेगा न ? कार्यकर्ता नहीं
पार्टी की नीति और रणनीति नेता ही बनाते हैं कार्यकर्ता नहीं
सारी शोहरत , नाम , यश , पद , कीर्ति जीतने पर नेता को ही मिलनी है किसी ब्लॉक लेवल के कार्यकर्ता को थोड़ी
हाँ वैसे हारने पर मीडिया के सवाल का जवाब और पार्टी के दुसरे नेताओं को जवाब भी वो नेता ही देगा
लेकिन जीतने पर नेता ज़्यादा पाता है और हारने पर उसके हाथ से कम जाता है (कुछ ना कुछ कारण बताकर निकल ही आते हैं संकट से )

लेकिन कार्यकर्ता को दोनों ही सूरत में क्या हासिल होता होगा ?
हारने से क्या छिन जाएगा या जीतने पर क्या मिल जाएगा ?
शायद कार्यकर्ता इसके लिए पार्टी में नहीं आते होंगे , वरना हर कोई नेता ही बनना चाहता और कार्यकर्ता कौन बनता ?
वैसे जिस पार्टी में नेता कम और कार्यकर्ता ज़्यादा हो पार्टी वही आगे बढ़ती है , अगर नेता ज़्यादा हो जाएँ तो हो लिया काम तमाम
कौन करेगा काम ?

हे सभी पार्टियों के भावना और दिल से जुड़े कार्यकर्ताओं मेरा तुमको प्रणाम …… मेरा तुमको प्रणाम  …… मेरा तुमको प्रणाम

दिल्ली और सरकार



आजकल खबर ज़ोरों पर है कि क्या आम आदमी पार्टी दिल्ली में एक बार फिर सरकार बनाएगी ?
ज़ाहिर सी बात है 70 सीटों की विधान सभा में आम आदमी पार्टी के पास 27  विधायक हैं (28 थे लेकिन एक को पार्टी ने निकाल दिया)
तो सरकार बनाने के लिए समर्थन कांग्रेस के 8 विधायकों का लेना होगा हालांकि संख्या 36 की होनी ज़रूरी है लेकिन बीजेपी के तीन विधायक क्योंकि अब संसद पहुँच गए हैं तो कांग्रेस के समर्थन से सरकार बन तो सकती है

लेकिन कहानी इस गुणा भाग की नहीं है , कहानी ये है कि आम आदमी पार्टी का लोकसभा में प्रदर्शन खराब रहा है , अपने घर दिल्ली की सभी सीटें तो हारे ही साथ ही अरविन्द केजरीवाल को छोड़ दिल्ली से बाहर सभी बड़े नेताओं की ज़मानत ज़ब्त हो गयी
और दिल्ली ही की बात कर लो तो यहाँ 60 विधानसभा सीटों पर बीजेपी ने बढ़त बनाई जबकि आम आदमी पार्टी केवल 10 में ही बढ़त सकी
आम आदमी पार्टी में आवाज़ उठ रही है कि हमको सरकार बनानी चाहिए और जो लोग ये आवाज़ उठा रहे हैं उनके पास इसकी वजह भी हैं

पहला दिल्ली में सरकार छोड़ने की वजह से पूरे देश में पार्टी से नाराज़गी बढ़ी और पार्टी के लिए माहौल खराब हो गया इसलिए इस बार सरकार बनाकर अपनी शासन क्षमता को साबित करना चाहिए , दूसरा मोदी की हवा इतनी प्रचंड है कि अगर विधानसभा चुनाव हुए तो शायद बीजेपी यहाँ भी पूर्ण बहुमत से सरकार बना ले , तीसरा ये कि पार्टी लगातार चुनाव लड़ रही है और डोनेशन देने वाले भी कब तक अपनी वाइट मनी देते रहेंगे खासतौर से तब जब पार्टी दिल्ली में ही हार गयी और दिल्ली का सबसे बड़ा वोटर मिडिल क्लास नमो जाप कर रहा हो , चौथा , लगातार चुनाव लड़कर सब थके हुए हैं और वालंटियर्स का मनोबल भी इस समय गिरा हुआ है ऐसे में चुनाव में ना जाकर सरकार बनायी जाए और अपनी गलती मानी जाए

लेकिन दूसरा धड़ा इस बात से सहमत नहीं है , उसका कहना है कि अगर सरकार बनायीं तो उस नैतिक आधार का क्या होगा जिसका राग पिछले तीन महीने से सरकार छोड़ने के बाद पार्टी अलाप रही थी , दूसरा कांग्रेस पर वो भरोसा कैसे करे क्यूंकि कांग्रेस के वोट बैंक पर कब्ज़ा करके आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस का दिल्ली से सफाया किया है और कांग्रेस की पूरी कोशिश होगी की किसी तरह इस पार्टी को निपटाया जाए तभी उसका अस्तित्व बचेगा , तीसरा अब सरकार बनाने का सन्देश ये भी जा सकता है कि आप को भी अब सत्ता का लालच हो गया है , और चौथा इस पूरे घटनाक्रम से पार्टी की अपरिपक्वता एक मिसाल बन जायेगी

वैसे खबर निकलते ही आप ने कहा कि सरकार बनाने का कोई सवाल ही नहीं उठता तो कांग्रेस बोली कोई समर्थन नहीं देंगे अब आप को
तो क्या ये खबर यहीं खत्म मान ली जाए ? यानी सरकार नहीं बन रही दिल्ली वालों की ?

इसके लिए हमें कांग्रेस की हालत पर गौर फरमाना पड़ेगा
दिल्ली में विधानसभा में उसके 8 विधायक हैं और अब हुए लोकसभा में वो एक भी विधानसभा सीट पर बढ़त नहीं बना पायी
सियासी हलकों में सब इस बात पे सहमत है कि दिल्ली में फिर चुनाव हुए तो कांग्रेस शायद एक भी सीट न जीत पाये क्योंकि लोकसभा चुनाव में केवल 15 फीसदी वोटों के साथ दिल्ली में कांग्रेस अप्रासंगिक हो गयी है
यानी उसके पास आम आदमी पार्टी को समर्थन देकर उसकी सरकार बनवाने से बढ़िया कोई विकल्प नहीं है

वैसे आम आदमी पार्टी इसपर कोई अंतिम फैसला नहीं हुआ है लेकिन आम आदमी पार्टी कोई कदम तब आगे बढ़ाना चाहेगी जब कांग्रेस खुद सरकार बनवाना चाहे और ऐलान करे कि दिल्ली की जनता के हित और बीजेपी को रोकने के लिए वो आम आदमी पार्टी को समर्थन देकर चाहती है कि वो एक बार फिर दिल्ली वालों से किये वादे पूरे करे , आप का अपनी तरफ से पहल करना मुश्किल लगता है क्योंकि इससे उसकी साख पर बट्टा लग सकता है क्यूंकि पार्टी का सिद्धांत ही गठबंधन के लिए मना करता है और पिछली बार भी कांग्रेस ने खुद ही समर्थन दिया था आप ने माँगा नहीं था ऐसे में खुद समर्थन कैसे मांग ले ?

उधर कांग्रेस भी अपनी तरफ से ऐलान नहीं करना चाह रही वो चाह रही है कि आम आदमी पार्टी झुके और खुद समर्थन की मांग करे
आखिर जो भी हो कांग्रेस है तो नेशनल पार्टी ही न.…  इतनी आसानी से कैसे उस पार्टी के सामने झुक जाए जिसने उसके घर से उसको निकाल दिया

यानी पहले 'आप' और पहले 'कांग्रेस' का खेल दिल्ली में अभी चल रहा है जो कुछ दिन अभी और चल सकता है

एक पत्रकार के तौर पर मैं अपना पक्ष नहीं रख सकता लेकिन क्यूंकि दिल्ली कवर करता हूँ और हूँ तो एक नागरिक ही
इसलिए ये ज़रूर कहना चाहता हूँ इस समय दिल्ली वालों को अपनी चुनी हुई सरकार की सबसे ज़्यादा जरूररत है
गर्मी का मौसम है पानी की किल्लत बढ़ने लगी , बिजली घंटों गायब रहने की खबरें आने लगी हैं इसके अलावा दिल्ली में  ज़्यादातर काम
सरकार ना होने की वजह से रुके हुए हैं और अफसरशाही हावी है
कुल मिलाकर दिल्ली में कोई कहने सुनने वाला नहीं है , सरकार किसीकी भी हो.…  अगर होगी तो कोई तो होगा जो समस्या दूर करेगा , कोई तो सुनेगा जनता की , कोई तो होगा जो आश्वासन देगा कि चिंता ना करें आपका काम हो जाएगा

अगले कुछ दिन दिल्ली की राजनीती और दिल्ली के नागरिकों के लिए अहम रहेंगे