शुक्रवार का दिन था , तारीख 16 मई 2014
मैं अपने कैमरापर्सन के साथ सुबह 5 बजे अपने ऑफिस से आप के दफ्तर के लिए निकला
करीब 5:30 बजे मैं जब वहां पहुंचा तो मुझे वहां उम्मीद से कम लोग और बहुत काम मीडिया नज़र आया
यहाँ मैं 8 दिसंबर के दिल्ली विधानसभा के नतीजे वाले दिन से तुलना कर रहा था
मुझे लगा मैं ही जल्दी आ गया हूँ
फिर मैंने थोड़ा और इंतज़ार किया और उम्मीद करी कि कम से कम पार्टी के वालंटियर्स या कार्यकर्ता तो आ जाए हाथ में झाड़ू लेकर
क्योंकि चुनावी माहौल कार्यकर्ताओं के जोश से ही बनता और दिखता है , रंग उसी से आता है
वक़्त गुज़रता गया लेकिन कोई ख़ास संख्या ना ही कार्यकर्ताओं की दिखाई दी और न ही मीडिया की
वोटों की गिनती शुरू हुई, कुछ पुराने कार्यकर्ता दिखने शुरू हुए
सब इंतज़ार कर रहे थे कि अपनी पार्टी की भी कोई सीट आये
सबकी आँखें वहां लगे टीवी स्क्रीन पर जमी हुई थी
बहुत देर इंतज़ार करने पर भी खाता नहीं खुल रहा था , तो कार्यकर्ता चैनल बदल बदल कर देखने लगे शायद इस चैनल पर नहीं तो उस चैनल पर हमारी पार्टी को सीटें मिल रही होंगी लेकिन सीटें चैनल नहीं देता जनता देती है ये भूल रहे थे
धीरे धीरे कुछ सीटें मिलनी शुरू हुई तो कुछ चेहरे खिलते दिखाई दिए लेकिन जब पार्टी दिल्ली की सभी सीटों पर हारती दिखी तो सबके चेहरे मायूस हो गए
कुछ कार्यकर्ता मायूस मन से कहने लगे कि चलो यार कोई नहीं जो जीतें हैं उन बीजेपी के दोस्तों को बधाई तो दे दो
मैं इस सब को देख रहा था और सोच रहा था कि कितना अंतर था 8 दिसंबर में और 16 मई में
उस दिन वहां जश्न था , आज मायूसी थी
उस दिन सब नाच गा रहे थे लेकिन आज सबका मन अंदर से रो रहा था
उस दिन वहां सब झाड़ू हाथ में लेकर झूम रहे थे लेकिन आज झाड़ू दिख भी नहीं रही थी किसी के हाथ में
सोचता हूँ कि अगर पार्टी अच्छा नहीं कर पायी तो इनकी क्या गलती ?
इन्होने तो पूरे मन से पार्टी के लिए काम किया, प्रचार किया तो आज इनको ये सब क्यों देखना पड़ा?
और बात केवल आम आदमी पार्टी की नहीं और ना ही ये बात केवल इस एक चुनाव की है
किसी भी पार्टी का कार्यकर्ता उस पार्टी की जान होता है
जो ज़मीनी स्तर पर पार्टी को खड़ा करता है , पार्टी अच्छा करती है तो सब बधाई देते हैं लेकिन अच्छे काम ज़्यादा होते कहाँ है उम्मीदें इतनी ज़्यादा होती है कि बधाई कम ही आती हैं लेकिन कुछ गलत करने पर कार्यकर्ता ही जनता की नाराज़गी का सामना करता है
अपने नेता की रैली करानी हो तो वो दिन रात काम करता है, जनता को पकड़ पकड़ कर लाता है कि आओ हमारे नेताजी को सुनो
आज के समय में जनता को रैली में लेकर आना सबसे मुश्किल काम है
यही नहीं टीवी और अखबारों में जो अलग अलग पार्टियों के नेताओं में ज़ुबानी जंग छिड़ती है
उसका शारीरिक और गाली गलोच वाला संस्करण कार्यकर्ता को झेलना पड़ता है
इसको ऐसे समझें कि अगर मुलायम सिंह यादव ने बहन मायावती के लिए या अरविन्द केजरीवाल ने नरेंद्र मोदी के लिए कुछ बोला तो इनका बयान तो राजनीती कहलायेगा लेकिन इसको लेकर जब गल्ली मोहल्ले और चाय की दूकान पर सपा-बसपा या बीजेपी-आप के कार्यकर्ताओं में में बहस चलती है तो माताओं बहनों को खूब याद किया जाता है , और बात यहीं नहीं खत्म हुई तो किसकी बॉडी में कितना दम है ये आज़माने का काम शुरू हो जाता है
हालांकि होते ये सब पडोसी या दोस्त ही हैं जो लम्बे समय से एक दुसरे को जानते हैं लेकिन क्या करें अपनी पार्टी और नेता के बारे में ज़्यादा सुन नहीं सकते
असल में कार्यकर्ता (ज़्यादातर) अपनी पार्टी की विचारधारा और अपने एक नेता से जुड़ा होता है
उसको लगता है ये ही अच्छी विचारधारा है , ये ही अच्छा नेता है जो हमारा या सबका भला करेगा
हालांकि कुछ कार्यकर्ता पेड भी होते होंगे लेकिन ज़्यादातर भावनात्मक रूप से पार्टी से जुड़े रहते हैं
चुनाव के दौरान अपनी पार्टी के लिए जी जान लगा देते हैं , जाने कितने दिन घर नहीं जाते
कहाँ कहाँ कैसे कैसे रहते हैं लेकिन बस चाहते हैं कि उनकी पार्टी जीत जाए
कभी हिस्से में जीत आती है तो नाचकर झूमकर अपने नेता की एक झलक देखकर ,
एक बार हाथ मिलाकर , एक फोटो खिंचवाकर , पैर छूकर अपनी ख़ुशी का इज़हार करके घर चला जाता है
और अगर पार्टी हार जाती है तो चुप चाप एक हिसाब लगाते हुए कि कहाँ गलती हुई हम लोगों से जो हम हार गए
रिक्शा पकड़कर , बस में बैठकर , मेट्रो में चढ़कर या ऑटो लेकर घर चला जाता है
लेकिन मैं ये सोचता हूँ कि किसी भी पार्टी की जीत या हार का ज़िम्मेदार कार्यकर्ता कैसे हो सकते हैं
वो तो बस वो काम करते हैं जो और जैसा उनको कहा जाता है करने के लिए पार्टी की तरफ से
और पार्टी के कहने का मतलब है नेता का कहना
कार्यकर्ता फैसला नहीं करते , फैसला नेता करता है
अगर पार्टी जीत जाए तो प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री तो नेता ही बनेगा न ? कार्यकर्ता नहीं
पार्टी की नीति और रणनीति नेता ही बनाते हैं कार्यकर्ता नहीं
सारी शोहरत , नाम , यश , पद , कीर्ति जीतने पर नेता को ही मिलनी है किसी ब्लॉक लेवल के कार्यकर्ता को थोड़ी
हाँ वैसे हारने पर मीडिया के सवाल का जवाब और पार्टी के दुसरे नेताओं को जवाब भी वो नेता ही देगा
लेकिन जीतने पर नेता ज़्यादा पाता है और हारने पर उसके हाथ से कम जाता है (कुछ ना कुछ कारण बताकर निकल ही आते हैं संकट से )
लेकिन कार्यकर्ता को दोनों ही सूरत में क्या हासिल होता होगा ?
हारने से क्या छिन जाएगा या जीतने पर क्या मिल जाएगा ?
शायद कार्यकर्ता इसके लिए पार्टी में नहीं आते होंगे , वरना हर कोई नेता ही बनना चाहता और कार्यकर्ता कौन बनता ?
वैसे जिस पार्टी में नेता कम और कार्यकर्ता ज़्यादा हो पार्टी वही आगे बढ़ती है , अगर नेता ज़्यादा हो जाएँ तो हो लिया काम तमाम
कौन करेगा काम ?
हे सभी पार्टियों के भावना और दिल से जुड़े कार्यकर्ताओं मेरा तुमको प्रणाम …… मेरा तुमको प्रणाम …… मेरा तुमको प्रणाम