कभी कभी सोचता हूँ कि राजनीती में महिलाओं को मज़बूत करने के नाम पर
स्थानीय निकाय/नगर पालिका/नगर निगम चुनावों में जो 33 % से लेकर 50 % सीटें आरक्षित होती हैं उनका क्या फायदा है ?
अब क्योंकि मैं दिल्ली का हूँ तो दिल्ली की ही बात करता हूँ
दिल्ली नगर निगम में कुल 272 में 136 यानि 50 % सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं
साल 2012 में पिछली बार जब यहाँ चुनाव हुए तो ज़्यादातर नेताओं ने ही अपनी पत्नी को चुनाव लडवा दिया
प्रचार के दौरान होर्डिंग पर उस महिला उम्मीदवार के साथ उसके पति की फोटो भी लगी होती थी
साथ ही महिला उम्मीदवार का नाम इस तरह लिखा जाता था कि लोगों को पता लग जाए कि ये किस नेता की पत्नी है
जैसे मान लीजिये महिला उम्मीदवार का नाम है रजनी शर्मा और उसके नेता पति का नाम है प्रकाश शर्मा
तो उस महिला उम्मीदवार का नाम ''रजनी प्रकाश शर्मा " लिखा जाएगा मानो ये बताया जा रहा हो कि
ये महिला उम्मीदवार केवल महिला सीट की वजह से है असल उम्मीदवार तो इसका पति है
यही नहीं जब कभी बाद में महिला पार्षद या महिला मेयर से मिलने जाते थे तो साथ में इनके नेता पति हमेशा मिलते थे
जो पहले हमसे मुद्दा पूछते थे और फिर अपनी पार्षद/मेयर पत्नी को समझाते थे और फिर वो हमको बयान देती थी
और मान लो हम ने थोड़ा सवाल इधर उधर किया तो बस उनकी हालात खराब
अब फिर नगर निगम के चुनाव आ रहे हैं और इस बार कुछ दूसरी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हुई हैं
एक पार्षद मुझे मिले। मैंने पूछा आप तो इस बार भी चुनाव के लिए तैयार होंगे, टिकट की क्या स्थिति है?
वो बोले "भाई मेरी सीट तो लेडीज़ सीट हो गई"
मैंने कहा तो अब क्या करोगे? वो बोले "अपनी पत्नी को लड़वाउंगा, टिकट के लिए अभी बात चल रही है"
मेरे कुछ सवाल हैं
1 . क्या केवल नेता की ही पत्नी के चुनाव लड़ने मात्र से राजनीती में महिलाएं मज़बूत हो जाएंगी ?
2 . क्या चुनाव लड़ने से ही सब कुछ हो जाएगा ?
3 . उन नई बनी महिला नेताओं का क्या होगा जो पिछली बार तो नेता बनी लेकिन इस बार उनकी सीट पुरुष की गई (रोटेशन ). अब इनको इनके पति या इनकी पार्टी कहाँ मौका देगी ?
4 क्या अब भी इनके पति या इनकी पार्टी इनको नीति/रणनीति बनाने में उतनी ही तवज्जो और भागीदारी देंगे?
मेरा मानना है कि राजनीती में महिलाओं के लिए बहुत जगह है लेकिन कोई इनको आगे नहीं आने देना चाहता। ऐसे में इनको आरक्षण देना ज़रूरी है वरना अगले 100 साल में भी उतनी महिलाएं चुनाव ना जीत पाएं जितनी आरक्षण के बाद जीत रही हैं. लेकिन अकेला आरक्षण कोई बड़ा बदलाव नहीं ला पा रहा.. अरे किसी नेता की पत्नी अगर चुनाव लड़ भी ली तो क्या हुआ? बात तो तब है जब वो राजनीती में आगे बढे और एक्टिव रहे
और सबसे बड़ी बात जब आम महिला या छोटे छोटे कार्यकर्ता स्तर की महिलाएं राजनीती में आगे आएँगी तब राजनीती में महिलाएं मज़बूत होंगी
सोचकर देखिये क्या नेता की पत्नी या बेटियां तो हमारी राजनीती में सालों से लेकिन इनके होने से राजनीती में क्या कुछ बदला? बदलाव तब होता है आम जान की भागीदारी होती
(नोट : ये मेरा अनुभव है जो गलत भी हो सकता है। आलोचना/सुझाव/संशोधन आमंत्रित हैं )