लोकसभा चुनाव 2014 के सिलसिले में मैं दिल्ली के अलग-अलग हिस्सों में घूमता
रहा और हाल ही में बनारस गया था। जिस ट्रेन से मैं दिल्ली से बनारस जा रहा
था, उसी से अरविंद केजरीवाल भी जा रहे थे - बनारस से नरेंद्र मोदी के
खिलाफ चुनाव लड़ने का ऐलान करने।
ट्रेन में बहुत-से लोग आकर अरविंद केजरीवाल से मिले, और वे सब आम लोग ही
थे। कोई उन्हें शुभकामना दे रहा था, कोई कह रहा था कि 'आप संघर्ष करें, हम
आपके साथ हैं...' लेकिन इन सबके बीच बड़ी संख्या में लोग केजरीवाल के पास
आकर यह भी कह रहे थे कि वे केजरीवाल के फैन रहे हैं और अभी तक तो केजरीवाल
के समर्थक थे या फिर उन्होंने दिल्ली में 'आप' को वोट डाला था, लेकिन जिस
तरह केजरीवाल सरकार ने इस्तीफा दिया, उससे उनके मन में कुछ शक पैदा हुआ है।
इस बात को समझने की ज़रूरत है कि अगर लोग केजरीवाल के मुंह पर यह बोल रहे
हैं तो इसका मतलब यह है कि आम आदमी पार्टी से उनका मोहभंग होता दिख रहा है।
केजरीवाल ने ज़्यादातर लोगों के सवालों के जवाब देने को कोशिश की, लेकिन
फिर मुझे याद आया कि मैं दिल्ली में जितनी भी जगह पर घूम रहा हूं, वहां भी
आम आदमी पार्टी के लिए चिंता की बात यह है कि उनके लिए कुछ हद तक लोगों में
नाराज़गी दिखाई दे रही है। नाराज़गी इस बात की कि उन्होंने 49 दिन में सरकार
क्यों गिराई और छोड़कर भाग क्यों गए...?
बेशक आम आदमी पार्टी इसके लिए दलीलें दे रही है और बता रही है कि उन्होंने
कुर्बानी दी है, त्याग किया है और कहीं छोड़कर नहीं भागे हैं, फिर लौटकर
आएंगे, लेकिन आम जनता की समस्या दूसरी है और बेहद वाजिब है। सरकार के न
रहने से अब सारे काम रुक गए हैं, और लोग अपनी समस्या लेकर किसके पास
जाएं...? जो बिजली बिल कम किए जाने का वादा था, वह तक अधूरा रह गया है। जिन
लोगों ने केजरीवाल के कहने पर बिल नहीं दिए, उन पर सारे बिल एक साथ देने
का दबाव अलग से है।
अफसर तो वैसे भी कभी जनता के काम में दिलचस्पी नहीं दिखाते थे, तो अब
राष्ट्रपति शासन में नौकरशाही किस आम आदमी का दर्द समझती होगी...?
विधायकों के पास जाते भी हैं तो विधायकों के काम करने की एक सीमा होती है।
जब तक केजरीवाल मुख्यमंत्री थे, विधायकों के कहने पर बहुत-से ऐसे काम हो
जाया करते थे, जो उनके अधिकार क्षेत्र में तो नहीं आते थे, लेकिन आम जनता
की सहूलियत के होते थे। लेकिन जब सरकार ही नहीं रही तो विधायक की ताकत भी
जैसे चली गई, जबकि उस पर जनता की उम्मीदों का दबाव इतना ज़्यादा है, इसको
कैसे संभालें, कुछ पता नहीं। इन नौजवान नेताओं को वैसे भी ज़्यादा अनुभव
नहीं था, ऐसे हालात से निपटने का। इस कारण आम आदमी पार्टी के लिए इन दिनों
सबसे बड़ी नकारात्मकता इसी को लेकर है।
जब मैंने अरविंद केजरीवाल से इसको लेकर सवाल किया तो उन्होंने इसका दोष कांग्रेस और बीजेपी पर डाल दिया। शायद इसलिए, क्योंकि जो चाल केजरीवाल चल चुके हैं, अब उसको वापस लेने का कोई जरिया नहीं है। लेकिन इसका एक मतलब यह भी है कि केजरीवाल अपनी रणनीति को लेकर ऐसे संशयविहीन हो चुके हैं कि वह दूसरों की प्रतिक्रियाओं से बेपरवाह नज़र आते हैं। इससे यह ख़तरा दिखाई देता है कि 'आप' आलोचनाओं को नज़रअंदाज़ करने लगी है।
हालांकि केजरीवाल का मूल आधार अब भी बचा हुआ है, और उन्हें आज भी जनता ईमानदार मानती है। उनकी अपनी छवि ऐसी 'टैफलॉन कोटिंग' वाली है, जिस पर करप्शन जैसा कोई आरोप चिपक नहीं पाता। यही नहीं, जहां तक मैं दिल्ली घूमा, लोगों ने मुझे बताया कि यह बात सच है कि जब केजरीवाल की सरकार थी, तब भ्रष्टाचार घटा था।
व्यापारी, ऑटो, टैम्पो ड्राइवर - सबका अनुभव यही था कि पुलिस उनसे उगाही से बचने लगी थी, इसलिए अब चुनाव होंगे तो वे फिर केजरीवाल को वोट देंगे। और एक धारणा दिल्ली के आम लोगों में यह भी दिख रही है कि लोकसभा चुनाव 2014 में वे मोदी को समर्थन दें और जब दोबारा दिल्ली में चुनाव हों तो फिर केजरीवाल को वोट दें।
थोड़ी और पड़ताल की कोशिश की तो समझ में आया कि दिल्ली में जो सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा तबका है, वह आम आदमी पार्टी का ऐसा मज़बूत हिस्सा है, जिस पर केजरीवाल का असर अब भी बना हुआ है। याद रखना ज़रूरी है कि यह तबका कल तक कांग्रेस का वोटबैंक था, जो आज आम आदमी पार्टी का बन चुका है। लेकिन मिडिल क्लास और अपर मिडिल क्लास में 'आप' को लेकर नाराज़गी है। आम आदमी पार्टी के काम करने के तरीके को लेकर यहां वोटों में सेंध लग सकती है।
लेकिन जानकार यह भी मान रहे हैं कि आम आदमी पार्टी इस सेंधमारी की भरपाई मुस्लिम वोटों से कर सकती है, क्योंकि केजरीवाल मोदी के खिलाफ झंडा बुलंद किए हुए हैं और दिल्ली में कांग्रेस तीसरे नंबर पर दिख रही है। ऐसे में मुसलमान इस बार आम आदमी पार्टी की तरफ जा सकते हैं। दिसंबर, 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 34 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि आम आदमी पार्टी को करीब 30 फीसदी, लेकिन इसमें ज़्यादा मुस्लिम वोट नहीं थे। कांग्रेस को 25 प्रतिशत वोट मिले थे और उसके आठ में से चार विधायक मुसलमान हैं।
जानकार यह भी मान रहे हैं कि जिस तरह से केजरीवाल ने सरकार में रहते हुए वर्ष 1984 में हुए सिख विरोधी हिंसा के लिए विशेष जांच दल बनाने का ऐलान किया, उससे सिखों में भी आम आदमी पार्टी की साख बढ़ी है। वैसे सिख-बहुल सीटों से 'आप' को पहले भी अच्छा सपोर्ट मिला था और तीन सिख विधायक जीतकर आए थे।
लेकिन यह अभी का माहौल है। 31 मार्च से केजरीवाल वापस दिल्ली में प्रचार के लिए उतरेंगे और रोज़ एक लोकसभा क्षेत्र में रोड शो और जनसभा करेंगे। आम आदमी पार्टी को इससे सबसे ज़्यादा उम्मीद है, क्योंकि नवंबर में रोड शो करके ही केजरीवाल ने पार्टी के लिए माहौल बनाया था और इस बार भी वह कोशिश करेंगे कि आम जनता को अपने जवाबों से संतुष्ट करें। दिल्ली में 10 अप्रैल को वोट है...
First of all Thanks for writing the blog.secondly i feel sorry about your phone & my sincere sympathies are with you...phone kharab hine ya gum hone ka dard main samajh sakta hn...anyways let me congratulate you on your brilliant analysis once again.Padkar maza aaya,aacha laga...jo aap kar rahe hain usi ko ground reporting kehte hain...aapke aur ravish sir ke blog pad ke aisa lagta h ki ab waqt aa gaya h ki newspapers ko editorials ki jagah blog chapne shuru kar dene chahiye
ReplyDeleteAccha laga. Aapki reporting trustworthy lagti hai.. Varna hum to kab ka TV dekhna chod diye the.. Likhte rahiye sir..thoda hum logo ka political awareness badhega.
ReplyDeleteCAMERAMAN GAURAV TRIPATHI KE SATH MAIN SHARAD SHARMA NAI DILLI NDTV INDIA...
ReplyDeleteउत्तम
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