Sharad Sharma, Reporter, NDTV

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Sunday, 27 April 2014

कितनी सीटें आ रही हैं 'आप' की ?



कितनी सीटें आ रही हैं 'आप' की ? पिछले कुछ महीनों से लोग अक्सर मुझसे ये सवाल करते हैं और ये बहुत स्वाभाविक भी है क्योंकि मै आम आदमी पार्टी कवर करता हूँ इसलिये लोग जानना चाहते हैं कि मेरा क्या आंकलन है इस पार्टी को लेकर

लेकिन बात इतनी सीधी नहीं होती लोग पहले मुझसे पूछते हैं और फिर बिन मांगे अपनी राय भी दे देते हैं ..... और राय ज़्यादातर ये होती है कि कुछ ना होना केज़रीवाल और उसकी पार्टी का , अब कहानी खतम है

मैं मन ही मन सोचता हूँ कि ये लोग पूछने आये थे , बताने आये थे ,या  फिर बहस करने आये थे?

असल में ये लोग केजरीवाल और आम आदमी पार्टी पर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करने आते हैं जिसके अलग अलग काऱण हैं

लेकिन ज़रा सा अपने दिमाग पर ज़ोर डालें तो आप देखेंगे कि आजकल शादी में जाओ तो राजनीति डिसकस हो रही है , बस में , ट्रेन में , दफ्तर में , गली मोहल्ले में राजनीती पर ही चर्चा चल रही है , क्या पहले ऐसा होता था ? क्या लोग राजनीती जैसे ऊबाऊ विषय पर अपने दिल की बात बोला करते थे?

एक दौर आया था जब न्यूज़ चैनल्स को देखनेवाले लोगों की संख्या घट रही थी और लोग न्यूज़ चैनल देखने की कोई ख़ास ज़हमत नहीं उठाते थे
लेकिन आज से तीन साल पहले दिल्ली के जंतर मंतर से जो आंदोलन शुरू हुआ उसने आम लोगों को वापस राजनीती के बारे में बात करने के लिए विवश किया , आम लोग बहुत समय के बाद घर से बाहर निकलकर अपनी ही चुनी हुई सरकार के खिलाफ खुलकर नारे लगाते और टीवी पर बोलते दिखे

और वहीँ से सरकार के खिलाफ माहौल बनना शुरू हुआ जो आज इस मोड़ पर आ गया है कि लोगों में इस बात पर शर्त लग रही है कि कांग्रेस की सीटों का आंकड़ा तीन डिजिट में जायेगा या दो में ही रह जाएगा

वहीँ से लोगों में एक बार फिर न्यूज़ चैनल देखने वाले लोगों की तादाद बढ़ी
वहीँ से बहुत से न्यूज़ चैनल.... न्यूज़ और डिबेट दिखाने को मजबूर हो गए वरना याद कीजिये उससे पहले कुछ चैनल्स क्या दिखाया करते थे ?
उसके बाद से आजतक चुनाव में पहले से ज़्यादा मतदान हो रहा है और पोलिंग के नए रिकॉर्ड बन रहे हैं

हाँ ये जनलोकपाल का आंदोलन था जिसने समाज को कुछ नया सोचने और उम्मीद पालने का जज़्बा दिया
अण्णा हज़ारे इस आंदोलन का चेहरा रहे , जबकि अरविन्द केजरीवाल , प्रशांत भूषण और किरण बेदी इस आंदोलन का दिमाग
जो उम्मीद इस आंदोलन से आम जनता को बंधी वो समय के साथ टूटती दिखी
अपनी विचारधारा और काम करने के तरीके को लेकर इस आंदोलन के कर्ता धर्ताओं में मतभेद की खबरें आम थी
और फिर एक दिन सामजिक आंदोलन पोलिटिकल पार्टी की तरफ बढ़ गया और नतीजा हुआ कि ये टीम दो हिस्सों में बंट गई पोलिटिकल और नॉन पोलिटिकल
और लगा कि सब खत्म क्योंकि जब साथ रहकर कुछ न कर पाये तो अलग होकर क्या करेंगे ?

लेकिन धीरे धीरे एक उम्मीद फिर दिखाई दी , ये उम्मीद थी अण्णा के अर्जुन कहे जाने वाले अरविन्द केजरीवाल
जिन्होंने आम आदमी पार्टी बनायी और धीरे धीरे दिल्ली के अंदर आम आदमी के मुद्दे इस क़दर उठाये
कि बहुत समय के बाद..... कम से कम दिल्ली के आम आदमी को गरीब आदमी को किसी पार्टी से या यूँ कहें कि किसी नेता से कुछ उम्मीद हो गयी
और इसी उम्मीद की वजह से आम आदमी पार्टी दिल्ली में 70 में से 28 सीटें जीत गयी, कांग्रेस ने बिन मांगे समर्थन दे दिया और देखते ही देखते अरविन्द केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए

आम लोगों से बातचीत के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि केजरीवाल के शासनकाल में भ्रष्टाचार कम हुआ, बिजली और पानी के दाम भी ज़रूर घटे थे
लेकिन केजरीवाल के इस्तीफा देने से उन उम्मीदों को धक्का लगा जो लोगों को अपने इस नए नेता से थी , असल में जिसने वोट दिया था और जिसने वोट नहीं भी दिया था सब के सब महंगाई और  भ्रष्टाचार से तंग तो थे ही.... इसलिए सब को केजरीवाल से उम्मीद थी .....ये नेता कुछ करके दिखायेगा !!

दिल्ली और देश के जिस हिस्से में  मैं गया वहां इस पार्टी या इस नेता के लिए बस एक ही नेगेटिव पॉइन्ट दिखता है , एक ही सवाल है कि सरकार क्यों छोड़ी? क्या लोकसभा चुनाव लड़ने का लालच आ गया था मन में ? या लग रहा था कि जैसे मुख्यमंत्री बन गया वैसे ही प्रधामंत्री बन जाऊँगा?
खैर केजरीवाल ने इसके जवाब अपने हिसाब से दिए भी लेकिन जनता कितना उसको कितना समझ पायी है या समझेगी इस पर साफतौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता क्योंकि कुछ लोग नाराज़गी के चलते कह रहे हैं 'आप ' की गलियों में ना रखेंगे कदम आज के बाद और एक तबका ऐसा भी है जो कहता कि दिल दुखा है लेकिन टूटा तो नहीं है उम्मीद का दामन छूटा  तो नहीं है

वैसे केजरीवाल के काम करने का तरीका हमेशा चर्चा और विवाद में रहा हो लेकिन उनकी ईमानदार आदमी की छवि पर कोई डेंट नहीं है ये सब मानते हैं और उनकी ईमानदारी पर शक़ होता तो लोग उनके इस्तीफे पर कहते कि अच्छा हुआ राहत मिली एक खाऊ मुख्यमंत्री और उसकी सरकार से , जबकि लोग अभी कह रहे हैं कि सरकार नहीं छोड़नी चाहिए थी। मैं सोचता हूँ कि ईमानदारी तो ठीक है लेकिन उसका जनता क्या करेगी अगर आप उसको अच्छा शासन ना दिखा पाएं

खैर अब बात फिर वहीँ आती है कि आप की कितनी सीटें आ रही हैं ? तो जवाब ये है कि इस पार्टी का वोटर साइलेंट रहता है इसलिए पार्टी का जनाधार पता लगाना या फिर आंकलन कर पाना  बहुत कठिन है।  दिल्ली चुनाव से पहले कौन कह रहा था कि केजरीवाल शीला को हराएंगे और वो भी एकतरफा ? या केजरीवाल की पार्टी 28 सीटें जीतेगी और केजरीवाल मुख्यमंत्री बन जाएंगे ?

और बात आजकल ये भी हो गयी है कि वोटर आसानी से बताता नहीं है की वो किसको वोट देगा या फिर दे चुका है ? क्योंकि वो अपने इलाके के किसी दूसरी पार्टी के नेता , विधायक , सांसद जो शायद उसका दोस्त , जानने वाला , पडोसी वगैरह भी हो सकता है लेकिन वोट उसको नहीं किसी दूसरी पार्टी को देना चाहता है ऐसे में आपको बताकर वो उसका बुरा नहीं बनना चाहता

यही नहीं आजकल तो हालत ये हो गए हैं की दिल्ली में एक परिवार के सारे वोट एक पार्टी को चले जाएँ ये पक्का नहीं है…… मेरे एक पत्रकार मित्र जो बीजेपी कवर करते हैं उन्होंने दिल्ली में वोटिंग वाले दिन मुझसे पहले तो दिल्ली की स्थिति पर चर्चा करी और फिर बताया कि हालात जैसे दिख रहे थे वैसे असल हैं नहीं , मैंने पूछा क्या हुआ ..... बोले यार हद हो गयी .... मैं बीजेपी को वोट देकर आया हूँ लेकिन मेरे घर के 4 झाड़ू (आप ) को चले गए
मेरे लिए ये कोई अचम्भा नहीं था क्योंकि मैं दिल्ली विधानसभा चुनाव 2013 में देख चुका था कि जो परिवार सालों से बीजेपी को वोट दे रहे थे उसमे इस बार माँ बाप तो कमल का बटन दबाकर आये थे लेकिन बच्चे झाड़ू चलकर आये थे जिसकी वजह से बीजेपी के हाथ से उसके गढ़ शालीमार बाग़ , रोहिणी जैसी सीटें निकल गयी थी

इसलिए कोई सीटों का आंकड़ा दिए बिना मैं मानता हूँ कि ये पार्टी 8 दिसंबर की तरह 16 मई को चौंका दे तो मुझे हैरत नहीं होगी

Friday, 25 April 2014

कुछ तो सोचकर बोलो बाबा

बड़ी हैरानी हो रही है आजकल बाबा रामदेव की बात सुनकर
बाबा रामदेव को मैने खूब कवर किया उनके आन्दोलन के दौरान
बातें तो उनकी पहले भी  लोगोँ को चुभती थीं लेकिन मर्यादा मे रहतीं थीं
लेकिन आजकल जाने बाबा को क्या हो गया है
शुक्रवार को लखनऊ मे कह डाला कि राहुल गांधी तो हनीमून  मनाने के लिये दलित के घर जाता है
अगर वो किसी दलित की बेटी से शादी कर लेता तो वो भी दौलतमंद हो जाती .......
अब बताइये बाबा के इस अनमोल वचन का क्या अर्थ निकाला जाये ?
चलिए एक बार को मै भूल जाता हूँ कि मै एक पत्रकार  हूँ और मुझे आदत है तिल का ताड़  बनाने क़ी
लेकिन आप भी सोचकर बताइये दलित के घर हनीमून बनाने के इस बयान का क्या अर्थ निकाला जाये ?

अभी कुछ दिन पहले एक इंटरव्यू मे आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल पर हमला करने के जोश मे बोल गये कि
''जितनी भीड़ केजरीवाल को सुनने  बनारस की रैली मे आयी थी न , उतनी भीड़ तो तब आ जाती है जब मैं मूतने के लिये गाड़ी से उतरता हूँ
हद्द हो गयी भाई , माना आपकी केजरीवाल से नहीं बनती या आपकी और केजरीवाल की विचारधारा अलग है लेकिन इस तरह के शब्द एक योगगुरु के मुख से शोभा देते हैं ?
योगी वो होता है जो अपनी इन्द्रियोँ को अपने वश में करके समाज मे एक आदर्श प्रस्तुत करता है
लेकिन आप समाज के सामने ये कैसे उदाहरण रख रहे हैं ?
माना कि आपका समर्थन बीजेपी को है और कांग्रेस हो या फिर आम आदमी पार्टी ये सब आपके निशाने पर रहेंगीं
लेकिन ये विरोध भी कैसा अगर भाषा और शब्द मर्यादा की सीमा रेखा ही लांघ जाये !!

बाबा रामदेव....... देश और दुनिया मे आपके  बहुत से  शिष्य और अनुयायी हैँ जो आपको आदर्श मानकर आपकी इज़्ज़त करते हैं
ऐसी इज़्ज़त जो कोइ रातों रात नहीं कमाई , जाने कितनी मेह्नत और त्याग के बाद ये दिन देखने को मिला है आपको
इसलिए आपसे गुज़ारिश है कि....... कुछ तो सोचकर बोलो बाबा

Friday, 11 April 2014

पहली बार देखा है ऐसा

पहली बार चुनाव आयोग ने अपना चाबुक चलाया है
अमित शाह और आज़म खान को भड़काऊ भाषण देने के चलते
अब चुनाव आयोग ने चुनाव प्रचार पर पाबंदी लगा दी है
अच्छा है वरना चुनाव आयोग की हालत ऐसी हो गयी थी जैसे
परीक्षा के दौरान मास्टरजी आते हैं और पर्चे बाँट देते हैं
और जब परीक्षा के दौरान बच्चे चीटिंग करते हैं या फर्रे चलाते हैं
तो मास्टरजी उस तरफ देखकर हल्का सा खांसते हैं
बच्चे थोड़ा सा सतर्क होकर थोड़ी देर बाद फिर चीटिंग करते हैं या फर्रे चलाते हैं
जब मास्टरजी देखते हैं कि बालक नालायक हैं और ऐसे नहीं मानेंगे तो मास्टरजी उठकर जाकर उस जगह का राउंड मारते हैं
ऐसा करके वो एक बार फिर बच्चों को शरारत करने से रोकते हैं
तीन घंटे के एग्जाम में ऐसा खूब चलता है
ज़्यादा हो तो मास्टर जी जाकर एक आधे का कान पकड़कर मरोड़ते हैं हैं और पूछ लेते हैं की ''पापा क्या करते हैं तेरे ''?
वैसे मास्टरजी पूछते तो ऐसे हैं जैसे उसके पापा से कोई काम निकलवाना हो उनको
जवाब कुछ भी हो मास्टर जी ये कहकर छोड़ देते हैं कि पढ़ाई नहीं करी पूरे साल ?
तीन घंटे में से ढ़ाई घंटे घंटे यही सब चलता है और आखिरी के आधे घंटे में मास्टरजी ना उस तरफ देखते हैं
ना ही बच्चों को मास्टरजी का कोई ख़ास डर रहता है
मास्टरजी सोचते हैं कि कोई नहीं  बच्चा पास हो जाएगा तो मेरा क्या जाएगा
बच्चे को भी पता होता है कि मास्टरजी ने कुछ करना होता तो अब तक कर देते
इसलिए सब कुछ बदस्तूर चलता रहता है
बच्चे बाद में अपने दोस्तों में अपनी शौर्य गाथा सुनाते हैं कि कैसे उन्होंने मास्टरजी को सेट कर दिया
लेकिन जब ये बात मास्टरजी को पता चलती है कि वो बालक मेरा ऐसे मज़ाक उड़ा रहा था
तो एक दिन मास्टरजी को मौका मिलता है तो नक़ल करते वक़्त बच्चे को पकड़ लिया करते हैं
और पेपर कैंसिल कर देते हैं ..... इस एक कार्रवाई से आसपास के और बच्चे सहम जाते हैं
और दोबारा ऐसी हरकत से डरते हैं ....
शायद चुनाव आयोग ने आज कुछ ऐसा ही सन्देश देने की कोशिश की है
वरना अब तक तो बस यही खबर सुनते थे कि चुनाव आयोग ने इस नेता उस नेता को जारी किया नोटिस
चुनाव आयोग नाराज़ , चुनाव आयोग ने नाखुशी ज़ाहिर की वगैरह वगैरह
आज कुछ सॉलिड हुआ है , उम्मीद है कि भाई लोग सुधरेंगे



Monday, 7 April 2014

आप : रणनीति में परिवर्तन



आम आदमी पार्टी इन दिनों कुछ ऐसा कर रही है कि उसके चाहने वाले भी या तो आलोचना में लगे हुए हैं या फिर कह रहे हैं कि पता नहीं ये सब क्या हो रहा है पार्टी में
जैसे कि कांग्रेस के खिलाफ बोलते बोलते अचानक बीजेपी के खिलाफ बोलना शुरू कर दिया जबकि आंदोलन कांग्रेस विरोध से शुरू हुआ था
अमेठी से राहुल गांधी को हराने से ज़यादा ज़रूरी नरेंद्र मोदी को बनारस से हराना हो गया
ऐसे लगने लगा कि 10 साल से देश में कांग्रेस की नहीं बीजेपी कि सरकार थी इसलिए उसका विरोध नहीं करेंगे तो काम कैसे चलेगा
ऐसा सन्देश जा रहा है कि पार्टी अपने मक़सद से भटक गयी है

असल में आम आदमी पार्टी कि ये सब बदली हुई रणनीति का हिस्सा है , लेकिन अजीब सब इसलिए लग रहा है क्योंकि कोई पार्टी अक्सर ऐसा नहीं करती जैसा कि आम आदमी पार्टी करने में लगी हुई है
जब दिल्ली के विधानसभा चुनाव हो रहे थे जो कि पार्टी का पहला इम्तिहान था उस समय पार्टी सकारात्मक प्रचार में लगी थी
कहती थी कि पहली बार ईमानदार पार्टी आई है इसलिए हमको चुनिए , यही है आम आदमी की अपनी पार्टी
इसका मतलब ये था कि पार्टी का लक्ष्य था दिल्ली जीतना और पार्टी बहुत हद तक दिल्ली जीतने में कामयाब रही
अरविन्द केजरीवाल ने मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को जिस तरह से हराया , राखी बिडलान ने राजकुमार चौहान को जिस तरह से शिकस्त दी
या फिर 28 सीट जीतने के बाद अरविन्द केजरीवाल जिस तरह से दिल्ली के मुख्यमंत्री बने ये सब सकारात्मक प्रचार के दम पर हुआ जिसमे लक्ष्य'' जीतना '' था

लेकिन अब पार्टी जिस ट्रैक पर चल रही है उसको कहते हैं नकारात्मक प्रचार
इसके तहत जीतना तो लक्ष्य है ही नहीं बल्कि हराना लक्ष्य है
चाहे नरेंद्र मोदी को बनारस से हराना हो या फिर अमेठी से राहुल गांधी को , नागपुर से नितिन गडकरी को या फिर चांदनी चौक से कपिल सिब्बल को
मेरा अपना निजी तौर पर ये मत है कि अगर अरविन्द केजरीवाल दिल्ली से लोकसभा चुनाव लड़ते तो पार्टी को दिल्ली कि सभी सात और आसपास कि 4  और सीटों पर इसका फायदा मिल सकता था
लेकिन ऐसा तब होता जब अरविन्द का मक़सद केवल सांसद बनना होता हालांकि ये बात भी सही है कि अगर केवल विधायक बन जाना भी मक़सद होता अरविन्द का तो वो शीला दीक्षित के खिलाफ चुनाव लड़ने का जोखिम क्यूँ उठाते ?
आपको बता दूं कि जिस समय अरविन्द केजरीवाल ने शीला दीक्षित के खिलाफ चुनाव लड़ने का फैसला किया था उस समय माना जा रहा था कि अरविन्द ने अपना जीवन दांव पर लगा दिया है क्यूंकि शीला दीक्षित को नई दिल्ली से हारने यानि शेर के जबड़े से शिकार निकाल लाने जैसा था लेकिन अरविन्द ने शिकार निकाल लिया और शीला दीक्षित को उनके घर में घुसकर मात दे दी
इस हिसाब से देखेंगे तो आपको अरविन्द केजरीवाल का बनारस से नरेंद्र मोदी के खिलाफ लड़ना गलत नहीं लगेगा
लेकिन फर्क ये है कि शीला दीक्षित कांग्रेस से थी जो केंद्र और राज्य में सत्ता पर काबिज थी लेकिन मोदी बीजेपी से हैं जो 10 साल से केंद्र में विपक्ष में बैठी हुई है
तो आखिर क्यों वे बीजेपी को अपना सबसे बड़ा दुश्मन बनाये हुए हैं ?
इसका कारण ये हो सकता है कि एक आम धारणा ये है कि कांग्रेस तो पहले से ही बाहर है और बड़ा खिलाड़ी बीजेपी है
तो ऐसे में बीजेपी पर हमला करने से आप को दो फायदे हो सकते हैं पहला तो एंटी बीजेपी/एंटी मोदी वोट अपनी तरफ खिसका लें और दूसरा अपने से बड़े से लड़ने वाले का नाम तो हारने पर भी होता साथ ही अगर मोदी के खिलाफ मुखर आवाज़ उठने से अल्पसंख्यक वोट आप की तरफ आ गया तो कांग्रेस को भारी नुक्सान हो सकता है खासतौर से दिल्ली में मुस्लिम और सिख समुदाय के बीच आप एक विकल्प के तौर पर देखी जा रही है
और बात ये भी है कि कांग्रेस में जितनी सेंध उस रणनीति से लगायी जा सकती थी शायद लग चुकी है अब बाकी कि सेंधमारी बीजेपी या मोदी के खिलाफ बोलकर ही लगायी जा सकती है

अरविन्द केजरीवाल या आम आदमी पार्टी के नकारात्मक प्रचार की हम आलोचना कर सकते हैं लेकिन हमें ध्यान रखना होगा कि हमेशा एक रणनीति काम कर जाए ये ज़रूरी नहीं और वैसे भी केजीरवाल और आप कुछ नया करने के लिए जानी जाती है तो कुछ नया करने में आलोचना तो होगी ही
बेशक़ आम आदमी पार्टी 400 से अधिक सीटों पर उम्मीदवार उतार चुकी है लेकिन असल में उसका लक्ष्य दिल्ली-एनसीआर , पंजाब , हरियाणा , कुछ महाराष्ट्र , हल्का सा कर्नाटक , अमेठी और सबसे बड़ी सीट बनारस है ..... पार्टी सोचती है कि अगर ये मिल जाए तो बस कुछ और हो या न हो क्या फर्क पड़ता है
इसलिए मुझे भी देखना है केजरीवाल की पिछली बार की रणनीति तो कामयाब हो गयी थी
क्या इस बार भी तीर निशाने पर लगेगा ?