आम आदमी पार्टी इन दिनों कुछ ऐसा कर रही है कि उसके चाहने वाले भी या तो आलोचना में लगे हुए हैं या फिर कह रहे हैं कि पता नहीं ये सब क्या हो रहा है पार्टी में
जैसे कि कांग्रेस के खिलाफ बोलते बोलते अचानक बीजेपी के खिलाफ बोलना शुरू कर दिया जबकि आंदोलन कांग्रेस विरोध से शुरू हुआ था
अमेठी से राहुल गांधी को हराने से ज़यादा ज़रूरी नरेंद्र मोदी को बनारस से हराना हो गया
ऐसे लगने लगा कि 10 साल से देश में कांग्रेस की नहीं बीजेपी कि सरकार थी इसलिए उसका विरोध नहीं करेंगे तो काम कैसे चलेगा
ऐसा सन्देश जा रहा है कि पार्टी अपने मक़सद से भटक गयी है
असल में आम आदमी पार्टी कि ये सब बदली हुई रणनीति का हिस्सा है , लेकिन अजीब सब इसलिए लग रहा है क्योंकि कोई पार्टी अक्सर ऐसा नहीं करती जैसा कि आम आदमी पार्टी करने में लगी हुई है
जब दिल्ली के विधानसभा चुनाव हो रहे थे जो कि पार्टी का पहला इम्तिहान था उस समय पार्टी सकारात्मक प्रचार में लगी थी
कहती थी कि पहली बार ईमानदार पार्टी आई है इसलिए हमको चुनिए , यही है आम आदमी की अपनी पार्टी
इसका मतलब ये था कि पार्टी का लक्ष्य था दिल्ली जीतना और पार्टी बहुत हद तक दिल्ली जीतने में कामयाब रही
अरविन्द केजरीवाल ने मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को जिस तरह से हराया , राखी बिडलान ने राजकुमार चौहान को जिस तरह से शिकस्त दी
या फिर 28 सीट जीतने के बाद अरविन्द केजरीवाल जिस तरह से दिल्ली के मुख्यमंत्री बने ये सब सकारात्मक प्रचार के दम पर हुआ जिसमे लक्ष्य'' जीतना '' था
लेकिन अब पार्टी जिस ट्रैक पर चल रही है उसको कहते हैं नकारात्मक प्रचार
इसके तहत जीतना तो लक्ष्य है ही नहीं बल्कि हराना लक्ष्य है
चाहे नरेंद्र मोदी को बनारस से हराना हो या फिर अमेठी से राहुल गांधी को , नागपुर से नितिन गडकरी को या फिर चांदनी चौक से कपिल सिब्बल को
मेरा अपना निजी तौर पर ये मत है कि अगर अरविन्द केजरीवाल दिल्ली से लोकसभा चुनाव लड़ते तो पार्टी को दिल्ली कि सभी सात और आसपास कि 4 और सीटों पर इसका फायदा मिल सकता था
लेकिन ऐसा तब होता जब अरविन्द का मक़सद केवल सांसद बनना होता हालांकि ये बात भी सही है कि अगर केवल विधायक बन जाना भी मक़सद होता अरविन्द का तो वो शीला दीक्षित के खिलाफ चुनाव लड़ने का जोखिम क्यूँ उठाते ?
आपको बता दूं कि जिस समय अरविन्द केजरीवाल ने शीला दीक्षित के खिलाफ चुनाव लड़ने का फैसला किया था उस समय माना जा रहा था कि अरविन्द ने अपना जीवन दांव पर लगा दिया है क्यूंकि शीला दीक्षित को नई दिल्ली से हारने यानि शेर के जबड़े से शिकार निकाल लाने जैसा था लेकिन अरविन्द ने शिकार निकाल लिया और शीला दीक्षित को उनके घर में घुसकर मात दे दी
इस हिसाब से देखेंगे तो आपको अरविन्द केजरीवाल का बनारस से नरेंद्र मोदी के खिलाफ लड़ना गलत नहीं लगेगा
लेकिन फर्क ये है कि शीला दीक्षित कांग्रेस से थी जो केंद्र और राज्य में सत्ता पर काबिज थी लेकिन मोदी बीजेपी से हैं जो 10 साल से केंद्र में विपक्ष में बैठी हुई है
तो आखिर क्यों वे बीजेपी को अपना सबसे बड़ा दुश्मन बनाये हुए हैं ?
इसका कारण ये हो सकता है कि एक आम धारणा ये है कि कांग्रेस तो पहले से ही बाहर है और बड़ा खिलाड़ी बीजेपी है
तो ऐसे में बीजेपी पर हमला करने से आप को दो फायदे हो सकते हैं पहला तो एंटी बीजेपी/एंटी मोदी वोट अपनी तरफ खिसका लें और दूसरा अपने से बड़े से लड़ने वाले का नाम तो हारने पर भी होता साथ ही अगर मोदी के खिलाफ मुखर आवाज़ उठने से अल्पसंख्यक वोट आप की तरफ आ गया तो कांग्रेस को भारी नुक्सान हो सकता है खासतौर से दिल्ली में मुस्लिम और सिख समुदाय के बीच आप एक विकल्प के तौर पर देखी जा रही है
और बात ये भी है कि कांग्रेस में जितनी सेंध उस रणनीति से लगायी जा सकती थी शायद लग चुकी है अब बाकी कि सेंधमारी बीजेपी या मोदी के खिलाफ बोलकर ही लगायी जा सकती है
अरविन्द केजरीवाल या आम आदमी पार्टी के नकारात्मक प्रचार की हम आलोचना कर सकते हैं लेकिन हमें ध्यान रखना होगा कि हमेशा एक रणनीति काम कर जाए ये ज़रूरी नहीं और वैसे भी केजीरवाल और आप कुछ नया करने के लिए जानी जाती है तो कुछ नया करने में आलोचना तो होगी ही
बेशक़ आम आदमी पार्टी 400 से अधिक सीटों पर उम्मीदवार उतार चुकी है लेकिन असल में उसका लक्ष्य दिल्ली-एनसीआर , पंजाब , हरियाणा , कुछ महाराष्ट्र , हल्का सा कर्नाटक , अमेठी और सबसे बड़ी सीट बनारस है ..... पार्टी सोचती है कि अगर ये मिल जाए तो बस कुछ और हो या न हो क्या फर्क पड़ता है
इसलिए मुझे भी देखना है केजरीवाल की पिछली बार की रणनीति तो कामयाब हो गयी थी
क्या इस बार भी तीर निशाने पर लगेगा ?
Good article but you r missing something....mumbai,kolkatta,banglore mein AAP ke candidates behtarine hain(vyaktigat taur par)...unse paar pana aasan ni h
ReplyDeletebahut achha aanklan bhai.. majedaar
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