Sharad Sharma, Reporter, NDTV

Sharad Sharma, Reporter, NDTV

Saturday, 8 November 2014

किसकी सरकार बनेगी इस बार ?

आजकल हर दूसरा शख्स जो मुझसे मिलता है
पूछता है भाई क्या सीन लग रहा है दिल्ली का ? किसकी सरकार बनेगी इस बार
और क्योंकि मैं किसी भी तरह की भविष्याणि से परहेज़ करता हूँ
इसलिए मैं कह देता हूँ भाई आप भी यहीं रहते हैं इसलिए आप खुद जानते ही हैं मैं क्या बताऊ ?
तो वो ये कहते हैं कि भाई दिल्ली की गली गली में घूमते हो दिल्ली की राजनीती कवर करते हो इसलिए ..........
अब इस पर मेरा जवाब कुछ इस तरह होता है
'' दिल्ली में अभी क्या माहौल है ये बताने या जानने के लिए किसी को पत्रकार होने की आवश्यकता नहीं है
दिल्ली में रहने वाला या दिल्ली में काम करने वाला आम आदमी इस बात को मानता है कि
इस समय मोदी लहर पर सवार बीजेपी सबसे आगे चल रही है
और माहौल ऐसा ही बना रहा तो बीजेपी 16 साल के बाद पहली बार दिल्ली की गद्दी पर आसीन होगी ''
फिर लोग पूछते हैं कि आम आदमी (पार्टी) का कोई सीन नहीं लग रहा क्या?
अब जब सामने वाला इतना कुछ पूछ रहा तो इसके दो मतलब हो सकते हैं
या तो उसके पास राजनीती को देने के लिए बहुत समय है या फिर
उसको इस बात का यकीन है कि मुझे दिल्ली की राजनीती की समझ है (ये मेरा दावा नहीं)
अब मैं उसको बता कहता हूँ कि
''अगर चुनाव की जीत हार इतनी स्वाभाविक हो तो चुनाव क्यों हो?
आम आदमी पार्टी या यूँ कहें कि अरविन्द केजरीवाल के दोबारा मुख्यमंत्री बनने के रास्ते में कुछ 'अगर' और 'मगर' हैं
दिल्ली के मिडिल क्लास में बीजेपी मज़बूत है और निचले तबके में आप की स्थिति अच्छी है
लेकिन क्योंकि दिल्ली में मिडिल क्लास बड़ी संख्या में हैं इसलिए
1 . जब तक आम आदमी पार्टी मिडिल क्लास वोटबैंक में सेंध नहीं लगाएगी
2 . या फिर ये हो कि मिडिल क्लास वोट करने कम जायेगी (कुछ सालों पहले खूब होता रहा)
3 . या फिर मिडिल क्लास में कांग्रेस कुछ अच्छा डेंट मार जाए
अगर इन तीनों में से कोई एक भी पॉइन्ट 'आप' के हक़ में चला गया
मगर ये ध्यान में रखते हुए कि आप निचले तबके और अल्पसंख्यक वोटों में अच्छी पकड़ बनाये रखती है
तो अरविन्द केजरीवाल मुख्यमंत्री बनकर फिर दिल्ली की गद्दी पर आएंगे
और अगर नहीं तो फिर जिसको नरेंद्र मोदी चाहेंगे वो दिल्ली का अगला मुख्यमंत्री बनेगा ''
शुरूआती आंकलन है , चुनावी माहौल रोज़ बदलता है और यही राजनीती और लोकतंत्र मज़ा है

Wednesday, 3 September 2014

मेरे पूर्वजों की भूमि पर पहला कदम

''……चीनी मिल ने गन्ने का बकाया दिया नहीं, बैंक से लोन मिला नहीं,
 घर के सारे गाए-भैंस बिक चुके थे, आर्थिक हालात खराब थे,
 वह तनाव में रहने लगा और आखिरकार उसने खुदकुशी कर ली………''
बचपन से अपने पिताजी से सुनता आ रहा था कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बाग़पत ज़िले
के बड़ौत के पास हमारे पूर्वजों का गाँव है 'टिकरी' जहाँ मैं कभी गया नहीं था
लेकिन शनिवार को खबर मिली कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक  गन्ना किसान ने आत्मगत्या कर ली है
चीनी मिल के गन्ना का पैसा न देने पर जिस किसान ने आत्महत्या की..... वो किसान 'टिकरी' का ही था
अगले ही दिन मैं स्टोरी करने चल दिया .... सोचा न था कि अपने पूर्वजों के गाँव में पहली बार कदम रखूँगा और वो भी ऐसे
उस किसान के घर पहुंचा तो उसके पिता, ससुर, और भाई ने बताया कि
चीनी मिल ने गन्ने का पैसा दिया नहीं , बैंक ने लोन दिया नहीं , घर के सारे गाए-भैंस बिक चुके थे
आर्थिक तंगी ने उस किसान को तनावग्रस्त कर डाला और उसने खुद अपने हाथों से अपने बच्चों को अनाथ और बीवी की मांग का सिन्दूर मिटा दिया
जब मैं उसकी पत्नी से बात करने पहुंचा तो वो मेरे सवाल करने पर इस क़दर रोने लगी कि………
ऐसा लगा मैने कुछ गलत सवाल कर दिया या फिर गलत तरीके से सवाल कर दिया
मुझसे उसकी हालत देखकर खुद से ही नाराज़गी होने लगी, और मैं वहां एक पल और रुकना नहीं चाहता था
लेकिन फिर मैंने खुद को समझाया कि ये सब दिखाना ही तो मेरा काम है
दुनिया देख तो ले कि कहने को तो नारा है 'जय जवान , जय किसान '
लेकिन हक़ीक़त में तो यहाँ 'जाए जवान , जाए किसान ' का सिस्टम है
बस इसके बाद मैं वहां और किसी से नहीं मिला , काम ख़त्म किया और रास्ते भर बस यही सोचता रहा
कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश तो बेहद समृद्ध और संपन्न इलाका माना जाता है
अगर यहाँ भी किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो चला है तो फिर देश में खेती करना कौन चाहेगा ?

Thursday, 28 August 2014

मैं और मेरी हिंदी

बात एक दशक पहले साल 2004 की है जब मैं पहली बार कॉलेज में गया
सारी क्लास एक साथ बैठी थी और जैसा कि शुरू में होता है
एक टीचर आई और उन्होंने कहा कि सब  Introduction दीजिये और बताइये यहाँ एडमिशन क्यों लिया
सबने Introduction देना शुरू किया , सभी बच्चे अंग्रेजी में अपना Introduction दे रहे थे
ऐसे में मेरे जैसा पूर्वी दिल्ली टाइप, केंद्रीय विद्यालय की नीली वर्दी वाला बालक सोच में पड़ गया
मुझे इंग्लिश आती थी लेकिन मैं हिंदी में बोलना चाहता था, मजबूरन मैंने इंग्लिश में अपना परिचय देकर कश्मकश खत्म की
मुझे डर था कि अगर मैंने सब इंग्लिश में बोलने वालों के बीच हिंदी में बोला तो मज़ाक बनेगा ,हसेंगे सब
वो डर गलत नहीं था, मेरे बोलने के कुछ देर के बाद जब एक लड़के ने हिंदी में परिचय दिया तो सब हँसे
उस दिन के बाद मेरे मन में एक सवाल हमेशा रहने लगा आखिर क्यों हम हिंदी बोलने वाले खुद को छोटा समझने लगते हैं ?
क्यों हमारे मन में हिंदी बोलते वक़्त एक तरह की हीन भावना आती है ?
वक़्त बीतता रहा और मैं मास कम्यूनिकेशन की क्लास में कम्यूनिकेशन के मूल सवाल पर अटका रहा
मैंने क्लास के बच्चों से यूहीं बातचीत करते हुए पाया कि बोलते तो ये भी हिंदी ही हैं लेकिन सबके सामने  इंग्लिश बोलने से अच्छा impression पड़ता है
साथ ही अगर हिंदी बोलेंगे तो ये लोग down market लगेंगे इसलिए सब दिखावा करके इंग्लिश बोले चले जा रहे थे
तब से मैंने फैसला किया कुछ भी हो जाए मैं हिंदी ही बोलूंगा खुलकर ,अब इस क्लास में हिंदी ही चलेगी
और बस फिर सब ऐसा होता चला गया कि सब लोग हिंदी ही बोलने लगे बेझिझक
अक्सर आरोप ये लगता है कि जिसको इंग्लिश नहीं आती वही हिंदी का राग अलापता है
पहले सेमेस्टर में इंग्लिश का पेपर हुआ तो मेरी उसमे distinction आई
और हिंदी के पेपर  के बारे में तो बताने की ज़रूरत ही नहीं है
दोस्तों अपनी बात को मनवाने के लिए खुद को साबित करना पड़ता है क्योंकि
''क्षमा शोभती उस भुजंग की , जिसके पास गरल हो '
कॉलेज के पहले दिन मैंने इंग्लिश में introduction दिया Hi , I am Sharad Sharma
वहीँ आखिरी दिन मैंने गर्व से बोला नमस्कार , मैं शरद शर्मा हूँ
कॉलेज के समय से मैंने हिंदी में लेख लिखने शुरू किये, बहस और चर्चा की
आज भी मैं हिंदी में रिपोर्टिंग करता हूँ , यहाँ फेसबुक पर ज़्यादातर बातें हिंदी में लिखता हूँ
इसका मतलब ये बिलकुल नहीं कि कोई इंग्लिश के खिलाफ है , या इंग्लिश नहीं सीखनी चाहिए
मैं तो कहता हूँ कि ज्ञान तो जितना ज़्यादा लिया जाए उतना बढ़िया है आपको फायदा ही होगा
लेकिन हिंदी हमारी मातृ भाषा है , यानी हमारी माँ की भाषा
अपनी माँ की भाषा में हमको बोलने , लिखने या काम करने में शर्म क्यों आये?
गर्व से कहिये हिंदी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा

Monday, 19 May 2014

नतीजे का वो दिन



शुक्रवार का दिन था , तारीख 16 मई 2014
मैं अपने कैमरापर्सन के साथ सुबह 5 बजे अपने ऑफिस से आप के दफ्तर के लिए निकला
करीब 5:30 बजे मैं जब वहां पहुंचा तो मुझे वहां उम्मीद से कम लोग और बहुत काम मीडिया नज़र आया
यहाँ मैं 8 दिसंबर के दिल्ली विधानसभा के नतीजे वाले दिन से तुलना कर रहा था
मुझे लगा मैं ही जल्दी आ गया हूँ
फिर मैंने थोड़ा और इंतज़ार किया और उम्मीद करी कि कम से कम पार्टी के वालंटियर्स या कार्यकर्ता तो आ जाए हाथ में झाड़ू लेकर
क्योंकि चुनावी माहौल कार्यकर्ताओं के जोश से ही बनता और दिखता है , रंग उसी से आता है

वक़्त गुज़रता गया लेकिन कोई ख़ास संख्या ना ही कार्यकर्ताओं की दिखाई दी और न ही मीडिया की
वोटों की गिनती शुरू हुई, कुछ पुराने कार्यकर्ता दिखने शुरू हुए
सब इंतज़ार कर रहे थे कि अपनी पार्टी की भी कोई सीट आये
सबकी आँखें वहां लगे टीवी स्क्रीन पर जमी हुई थी
बहुत देर इंतज़ार करने पर भी खाता नहीं खुल रहा था , तो कार्यकर्ता चैनल बदल बदल कर देखने लगे शायद इस चैनल पर नहीं तो उस चैनल पर हमारी पार्टी को सीटें मिल रही होंगी लेकिन सीटें चैनल नहीं देता जनता देती है ये  भूल रहे थे

धीरे धीरे कुछ सीटें मिलनी शुरू हुई तो कुछ चेहरे खिलते दिखाई दिए लेकिन जब पार्टी दिल्ली की सभी सीटों पर हारती दिखी तो सबके चेहरे मायूस हो गए
कुछ कार्यकर्ता मायूस मन से कहने लगे कि चलो यार कोई नहीं जो जीतें हैं उन बीजेपी के दोस्तों को बधाई तो दे दो
मैं इस सब को देख रहा था और सोच रहा था कि कितना अंतर था 8 दिसंबर में और 16 मई में
उस दिन वहां जश्न था , आज मायूसी थी
उस दिन सब नाच गा रहे थे लेकिन आज सबका मन अंदर से रो रहा था
उस दिन वहां सब झाड़ू हाथ में लेकर झूम रहे थे लेकिन आज झाड़ू दिख भी नहीं रही थी किसी के हाथ में


सोचता हूँ कि अगर पार्टी अच्छा नहीं कर पायी तो इनकी क्या गलती ?
इन्होने तो पूरे मन से पार्टी के लिए काम किया, प्रचार किया तो आज इनको ये सब क्यों देखना पड़ा?
और बात केवल आम आदमी पार्टी की नहीं और ना ही ये बात केवल इस एक चुनाव की है


किसी भी पार्टी का कार्यकर्ता उस पार्टी की जान होता है
जो ज़मीनी स्तर पर पार्टी को खड़ा करता है , पार्टी अच्छा करती है तो सब बधाई देते हैं लेकिन अच्छे काम ज़्यादा होते कहाँ है उम्मीदें इतनी ज़्यादा होती है कि बधाई कम ही आती हैं लेकिन कुछ गलत करने पर कार्यकर्ता ही जनता की नाराज़गी का सामना करता है
अपने नेता की रैली करानी हो तो वो दिन रात काम करता है, जनता को पकड़ पकड़ कर लाता है कि आओ हमारे नेताजी को सुनो

आज के समय में जनता को रैली में लेकर आना सबसे मुश्किल काम है
यही नहीं टीवी और अखबारों में जो अलग अलग पार्टियों के नेताओं में ज़ुबानी जंग छिड़ती है
उसका शारीरिक और गाली गलोच वाला संस्करण कार्यकर्ता को झेलना पड़ता है

इसको ऐसे समझें कि अगर मुलायम सिंह यादव ने बहन मायावती के लिए या अरविन्द केजरीवाल ने नरेंद्र मोदी के लिए कुछ बोला तो इनका बयान तो राजनीती कहलायेगा लेकिन इसको लेकर जब गल्ली मोहल्ले और चाय की दूकान पर सपा-बसपा या बीजेपी-आप के कार्यकर्ताओं में  में बहस चलती है तो माताओं बहनों को खूब याद किया जाता है , और बात यहीं नहीं खत्म हुई तो किसकी  बॉडी में कितना दम है ये आज़माने का काम शुरू हो जाता है
हालांकि होते ये सब पडोसी या दोस्त ही हैं जो लम्बे समय से एक दुसरे को जानते हैं लेकिन क्या करें अपनी पार्टी और नेता के बारे में ज़्यादा सुन नहीं सकते

असल में कार्यकर्ता (ज़्यादातर) अपनी पार्टी की विचारधारा और अपने एक नेता से जुड़ा होता है
उसको लगता है ये ही अच्छी विचारधारा है , ये ही अच्छा नेता है जो हमारा या सबका भला करेगा
हालांकि कुछ कार्यकर्ता पेड भी होते होंगे लेकिन ज़्यादातर भावनात्मक रूप से पार्टी से जुड़े रहते हैं
चुनाव के दौरान  अपनी पार्टी के लिए जी जान लगा देते हैं , जाने कितने दिन घर नहीं जाते
कहाँ कहाँ कैसे कैसे रहते हैं लेकिन बस चाहते हैं कि उनकी पार्टी जीत जाए
कभी हिस्से में जीत आती है तो नाचकर झूमकर अपने नेता की एक झलक देखकर ,
एक बार हाथ मिलाकर , एक फोटो खिंचवाकर , पैर छूकर  अपनी ख़ुशी का इज़हार करके घर चला जाता है
और अगर पार्टी हार जाती है तो चुप चाप एक हिसाब लगाते हुए कि कहाँ गलती हुई हम लोगों से जो हम हार गए
रिक्शा पकड़कर , बस में बैठकर , मेट्रो में चढ़कर या ऑटो लेकर घर चला जाता है

लेकिन मैं ये सोचता हूँ कि किसी भी पार्टी की जीत या हार का ज़िम्मेदार कार्यकर्ता कैसे हो सकते हैं
वो तो बस वो काम करते हैं जो और जैसा उनको कहा जाता है करने के लिए पार्टी की तरफ से
और पार्टी के कहने का मतलब है नेता का कहना
कार्यकर्ता फैसला नहीं करते , फैसला नेता करता है

अगर पार्टी जीत जाए तो प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री तो नेता ही बनेगा न ? कार्यकर्ता नहीं
पार्टी की नीति और रणनीति नेता ही बनाते हैं कार्यकर्ता नहीं
सारी शोहरत , नाम , यश , पद , कीर्ति जीतने पर नेता को ही मिलनी है किसी ब्लॉक लेवल के कार्यकर्ता को थोड़ी
हाँ वैसे हारने पर मीडिया के सवाल का जवाब और पार्टी के दुसरे नेताओं को जवाब भी वो नेता ही देगा
लेकिन जीतने पर नेता ज़्यादा पाता है और हारने पर उसके हाथ से कम जाता है (कुछ ना कुछ कारण बताकर निकल ही आते हैं संकट से )

लेकिन कार्यकर्ता को दोनों ही सूरत में क्या हासिल होता होगा ?
हारने से क्या छिन जाएगा या जीतने पर क्या मिल जाएगा ?
शायद कार्यकर्ता इसके लिए पार्टी में नहीं आते होंगे , वरना हर कोई नेता ही बनना चाहता और कार्यकर्ता कौन बनता ?
वैसे जिस पार्टी में नेता कम और कार्यकर्ता ज़्यादा हो पार्टी वही आगे बढ़ती है , अगर नेता ज़्यादा हो जाएँ तो हो लिया काम तमाम
कौन करेगा काम ?

हे सभी पार्टियों के भावना और दिल से जुड़े कार्यकर्ताओं मेरा तुमको प्रणाम …… मेरा तुमको प्रणाम  …… मेरा तुमको प्रणाम

दिल्ली और सरकार



आजकल खबर ज़ोरों पर है कि क्या आम आदमी पार्टी दिल्ली में एक बार फिर सरकार बनाएगी ?
ज़ाहिर सी बात है 70 सीटों की विधान सभा में आम आदमी पार्टी के पास 27  विधायक हैं (28 थे लेकिन एक को पार्टी ने निकाल दिया)
तो सरकार बनाने के लिए समर्थन कांग्रेस के 8 विधायकों का लेना होगा हालांकि संख्या 36 की होनी ज़रूरी है लेकिन बीजेपी के तीन विधायक क्योंकि अब संसद पहुँच गए हैं तो कांग्रेस के समर्थन से सरकार बन तो सकती है

लेकिन कहानी इस गुणा भाग की नहीं है , कहानी ये है कि आम आदमी पार्टी का लोकसभा में प्रदर्शन खराब रहा है , अपने घर दिल्ली की सभी सीटें तो हारे ही साथ ही अरविन्द केजरीवाल को छोड़ दिल्ली से बाहर सभी बड़े नेताओं की ज़मानत ज़ब्त हो गयी
और दिल्ली ही की बात कर लो तो यहाँ 60 विधानसभा सीटों पर बीजेपी ने बढ़त बनाई जबकि आम आदमी पार्टी केवल 10 में ही बढ़त सकी
आम आदमी पार्टी में आवाज़ उठ रही है कि हमको सरकार बनानी चाहिए और जो लोग ये आवाज़ उठा रहे हैं उनके पास इसकी वजह भी हैं

पहला दिल्ली में सरकार छोड़ने की वजह से पूरे देश में पार्टी से नाराज़गी बढ़ी और पार्टी के लिए माहौल खराब हो गया इसलिए इस बार सरकार बनाकर अपनी शासन क्षमता को साबित करना चाहिए , दूसरा मोदी की हवा इतनी प्रचंड है कि अगर विधानसभा चुनाव हुए तो शायद बीजेपी यहाँ भी पूर्ण बहुमत से सरकार बना ले , तीसरा ये कि पार्टी लगातार चुनाव लड़ रही है और डोनेशन देने वाले भी कब तक अपनी वाइट मनी देते रहेंगे खासतौर से तब जब पार्टी दिल्ली में ही हार गयी और दिल्ली का सबसे बड़ा वोटर मिडिल क्लास नमो जाप कर रहा हो , चौथा , लगातार चुनाव लड़कर सब थके हुए हैं और वालंटियर्स का मनोबल भी इस समय गिरा हुआ है ऐसे में चुनाव में ना जाकर सरकार बनायी जाए और अपनी गलती मानी जाए

लेकिन दूसरा धड़ा इस बात से सहमत नहीं है , उसका कहना है कि अगर सरकार बनायीं तो उस नैतिक आधार का क्या होगा जिसका राग पिछले तीन महीने से सरकार छोड़ने के बाद पार्टी अलाप रही थी , दूसरा कांग्रेस पर वो भरोसा कैसे करे क्यूंकि कांग्रेस के वोट बैंक पर कब्ज़ा करके आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस का दिल्ली से सफाया किया है और कांग्रेस की पूरी कोशिश होगी की किसी तरह इस पार्टी को निपटाया जाए तभी उसका अस्तित्व बचेगा , तीसरा अब सरकार बनाने का सन्देश ये भी जा सकता है कि आप को भी अब सत्ता का लालच हो गया है , और चौथा इस पूरे घटनाक्रम से पार्टी की अपरिपक्वता एक मिसाल बन जायेगी

वैसे खबर निकलते ही आप ने कहा कि सरकार बनाने का कोई सवाल ही नहीं उठता तो कांग्रेस बोली कोई समर्थन नहीं देंगे अब आप को
तो क्या ये खबर यहीं खत्म मान ली जाए ? यानी सरकार नहीं बन रही दिल्ली वालों की ?

इसके लिए हमें कांग्रेस की हालत पर गौर फरमाना पड़ेगा
दिल्ली में विधानसभा में उसके 8 विधायक हैं और अब हुए लोकसभा में वो एक भी विधानसभा सीट पर बढ़त नहीं बना पायी
सियासी हलकों में सब इस बात पे सहमत है कि दिल्ली में फिर चुनाव हुए तो कांग्रेस शायद एक भी सीट न जीत पाये क्योंकि लोकसभा चुनाव में केवल 15 फीसदी वोटों के साथ दिल्ली में कांग्रेस अप्रासंगिक हो गयी है
यानी उसके पास आम आदमी पार्टी को समर्थन देकर उसकी सरकार बनवाने से बढ़िया कोई विकल्प नहीं है

वैसे आम आदमी पार्टी इसपर कोई अंतिम फैसला नहीं हुआ है लेकिन आम आदमी पार्टी कोई कदम तब आगे बढ़ाना चाहेगी जब कांग्रेस खुद सरकार बनवाना चाहे और ऐलान करे कि दिल्ली की जनता के हित और बीजेपी को रोकने के लिए वो आम आदमी पार्टी को समर्थन देकर चाहती है कि वो एक बार फिर दिल्ली वालों से किये वादे पूरे करे , आप का अपनी तरफ से पहल करना मुश्किल लगता है क्योंकि इससे उसकी साख पर बट्टा लग सकता है क्यूंकि पार्टी का सिद्धांत ही गठबंधन के लिए मना करता है और पिछली बार भी कांग्रेस ने खुद ही समर्थन दिया था आप ने माँगा नहीं था ऐसे में खुद समर्थन कैसे मांग ले ?

उधर कांग्रेस भी अपनी तरफ से ऐलान नहीं करना चाह रही वो चाह रही है कि आम आदमी पार्टी झुके और खुद समर्थन की मांग करे
आखिर जो भी हो कांग्रेस है तो नेशनल पार्टी ही न.…  इतनी आसानी से कैसे उस पार्टी के सामने झुक जाए जिसने उसके घर से उसको निकाल दिया

यानी पहले 'आप' और पहले 'कांग्रेस' का खेल दिल्ली में अभी चल रहा है जो कुछ दिन अभी और चल सकता है

एक पत्रकार के तौर पर मैं अपना पक्ष नहीं रख सकता लेकिन क्यूंकि दिल्ली कवर करता हूँ और हूँ तो एक नागरिक ही
इसलिए ये ज़रूर कहना चाहता हूँ इस समय दिल्ली वालों को अपनी चुनी हुई सरकार की सबसे ज़्यादा जरूररत है
गर्मी का मौसम है पानी की किल्लत बढ़ने लगी , बिजली घंटों गायब रहने की खबरें आने लगी हैं इसके अलावा दिल्ली में  ज़्यादातर काम
सरकार ना होने की वजह से रुके हुए हैं और अफसरशाही हावी है
कुल मिलाकर दिल्ली में कोई कहने सुनने वाला नहीं है , सरकार किसीकी भी हो.…  अगर होगी तो कोई तो होगा जो समस्या दूर करेगा , कोई तो सुनेगा जनता की , कोई तो होगा जो आश्वासन देगा कि चिंता ना करें आपका काम हो जाएगा

अगले कुछ दिन दिल्ली की राजनीती और दिल्ली के नागरिकों के लिए अहम रहेंगे




Sunday, 27 April 2014

कितनी सीटें आ रही हैं 'आप' की ?



कितनी सीटें आ रही हैं 'आप' की ? पिछले कुछ महीनों से लोग अक्सर मुझसे ये सवाल करते हैं और ये बहुत स्वाभाविक भी है क्योंकि मै आम आदमी पार्टी कवर करता हूँ इसलिये लोग जानना चाहते हैं कि मेरा क्या आंकलन है इस पार्टी को लेकर

लेकिन बात इतनी सीधी नहीं होती लोग पहले मुझसे पूछते हैं और फिर बिन मांगे अपनी राय भी दे देते हैं ..... और राय ज़्यादातर ये होती है कि कुछ ना होना केज़रीवाल और उसकी पार्टी का , अब कहानी खतम है

मैं मन ही मन सोचता हूँ कि ये लोग पूछने आये थे , बताने आये थे ,या  फिर बहस करने आये थे?

असल में ये लोग केजरीवाल और आम आदमी पार्टी पर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करने आते हैं जिसके अलग अलग काऱण हैं

लेकिन ज़रा सा अपने दिमाग पर ज़ोर डालें तो आप देखेंगे कि आजकल शादी में जाओ तो राजनीति डिसकस हो रही है , बस में , ट्रेन में , दफ्तर में , गली मोहल्ले में राजनीती पर ही चर्चा चल रही है , क्या पहले ऐसा होता था ? क्या लोग राजनीती जैसे ऊबाऊ विषय पर अपने दिल की बात बोला करते थे?

एक दौर आया था जब न्यूज़ चैनल्स को देखनेवाले लोगों की संख्या घट रही थी और लोग न्यूज़ चैनल देखने की कोई ख़ास ज़हमत नहीं उठाते थे
लेकिन आज से तीन साल पहले दिल्ली के जंतर मंतर से जो आंदोलन शुरू हुआ उसने आम लोगों को वापस राजनीती के बारे में बात करने के लिए विवश किया , आम लोग बहुत समय के बाद घर से बाहर निकलकर अपनी ही चुनी हुई सरकार के खिलाफ खुलकर नारे लगाते और टीवी पर बोलते दिखे

और वहीँ से सरकार के खिलाफ माहौल बनना शुरू हुआ जो आज इस मोड़ पर आ गया है कि लोगों में इस बात पर शर्त लग रही है कि कांग्रेस की सीटों का आंकड़ा तीन डिजिट में जायेगा या दो में ही रह जाएगा

वहीँ से लोगों में एक बार फिर न्यूज़ चैनल देखने वाले लोगों की तादाद बढ़ी
वहीँ से बहुत से न्यूज़ चैनल.... न्यूज़ और डिबेट दिखाने को मजबूर हो गए वरना याद कीजिये उससे पहले कुछ चैनल्स क्या दिखाया करते थे ?
उसके बाद से आजतक चुनाव में पहले से ज़्यादा मतदान हो रहा है और पोलिंग के नए रिकॉर्ड बन रहे हैं

हाँ ये जनलोकपाल का आंदोलन था जिसने समाज को कुछ नया सोचने और उम्मीद पालने का जज़्बा दिया
अण्णा हज़ारे इस आंदोलन का चेहरा रहे , जबकि अरविन्द केजरीवाल , प्रशांत भूषण और किरण बेदी इस आंदोलन का दिमाग
जो उम्मीद इस आंदोलन से आम जनता को बंधी वो समय के साथ टूटती दिखी
अपनी विचारधारा और काम करने के तरीके को लेकर इस आंदोलन के कर्ता धर्ताओं में मतभेद की खबरें आम थी
और फिर एक दिन सामजिक आंदोलन पोलिटिकल पार्टी की तरफ बढ़ गया और नतीजा हुआ कि ये टीम दो हिस्सों में बंट गई पोलिटिकल और नॉन पोलिटिकल
और लगा कि सब खत्म क्योंकि जब साथ रहकर कुछ न कर पाये तो अलग होकर क्या करेंगे ?

लेकिन धीरे धीरे एक उम्मीद फिर दिखाई दी , ये उम्मीद थी अण्णा के अर्जुन कहे जाने वाले अरविन्द केजरीवाल
जिन्होंने आम आदमी पार्टी बनायी और धीरे धीरे दिल्ली के अंदर आम आदमी के मुद्दे इस क़दर उठाये
कि बहुत समय के बाद..... कम से कम दिल्ली के आम आदमी को गरीब आदमी को किसी पार्टी से या यूँ कहें कि किसी नेता से कुछ उम्मीद हो गयी
और इसी उम्मीद की वजह से आम आदमी पार्टी दिल्ली में 70 में से 28 सीटें जीत गयी, कांग्रेस ने बिन मांगे समर्थन दे दिया और देखते ही देखते अरविन्द केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए

आम लोगों से बातचीत के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि केजरीवाल के शासनकाल में भ्रष्टाचार कम हुआ, बिजली और पानी के दाम भी ज़रूर घटे थे
लेकिन केजरीवाल के इस्तीफा देने से उन उम्मीदों को धक्का लगा जो लोगों को अपने इस नए नेता से थी , असल में जिसने वोट दिया था और जिसने वोट नहीं भी दिया था सब के सब महंगाई और  भ्रष्टाचार से तंग तो थे ही.... इसलिए सब को केजरीवाल से उम्मीद थी .....ये नेता कुछ करके दिखायेगा !!

दिल्ली और देश के जिस हिस्से में  मैं गया वहां इस पार्टी या इस नेता के लिए बस एक ही नेगेटिव पॉइन्ट दिखता है , एक ही सवाल है कि सरकार क्यों छोड़ी? क्या लोकसभा चुनाव लड़ने का लालच आ गया था मन में ? या लग रहा था कि जैसे मुख्यमंत्री बन गया वैसे ही प्रधामंत्री बन जाऊँगा?
खैर केजरीवाल ने इसके जवाब अपने हिसाब से दिए भी लेकिन जनता कितना उसको कितना समझ पायी है या समझेगी इस पर साफतौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता क्योंकि कुछ लोग नाराज़गी के चलते कह रहे हैं 'आप ' की गलियों में ना रखेंगे कदम आज के बाद और एक तबका ऐसा भी है जो कहता कि दिल दुखा है लेकिन टूटा तो नहीं है उम्मीद का दामन छूटा  तो नहीं है

वैसे केजरीवाल के काम करने का तरीका हमेशा चर्चा और विवाद में रहा हो लेकिन उनकी ईमानदार आदमी की छवि पर कोई डेंट नहीं है ये सब मानते हैं और उनकी ईमानदारी पर शक़ होता तो लोग उनके इस्तीफे पर कहते कि अच्छा हुआ राहत मिली एक खाऊ मुख्यमंत्री और उसकी सरकार से , जबकि लोग अभी कह रहे हैं कि सरकार नहीं छोड़नी चाहिए थी। मैं सोचता हूँ कि ईमानदारी तो ठीक है लेकिन उसका जनता क्या करेगी अगर आप उसको अच्छा शासन ना दिखा पाएं

खैर अब बात फिर वहीँ आती है कि आप की कितनी सीटें आ रही हैं ? तो जवाब ये है कि इस पार्टी का वोटर साइलेंट रहता है इसलिए पार्टी का जनाधार पता लगाना या फिर आंकलन कर पाना  बहुत कठिन है।  दिल्ली चुनाव से पहले कौन कह रहा था कि केजरीवाल शीला को हराएंगे और वो भी एकतरफा ? या केजरीवाल की पार्टी 28 सीटें जीतेगी और केजरीवाल मुख्यमंत्री बन जाएंगे ?

और बात आजकल ये भी हो गयी है कि वोटर आसानी से बताता नहीं है की वो किसको वोट देगा या फिर दे चुका है ? क्योंकि वो अपने इलाके के किसी दूसरी पार्टी के नेता , विधायक , सांसद जो शायद उसका दोस्त , जानने वाला , पडोसी वगैरह भी हो सकता है लेकिन वोट उसको नहीं किसी दूसरी पार्टी को देना चाहता है ऐसे में आपको बताकर वो उसका बुरा नहीं बनना चाहता

यही नहीं आजकल तो हालत ये हो गए हैं की दिल्ली में एक परिवार के सारे वोट एक पार्टी को चले जाएँ ये पक्का नहीं है…… मेरे एक पत्रकार मित्र जो बीजेपी कवर करते हैं उन्होंने दिल्ली में वोटिंग वाले दिन मुझसे पहले तो दिल्ली की स्थिति पर चर्चा करी और फिर बताया कि हालात जैसे दिख रहे थे वैसे असल हैं नहीं , मैंने पूछा क्या हुआ ..... बोले यार हद हो गयी .... मैं बीजेपी को वोट देकर आया हूँ लेकिन मेरे घर के 4 झाड़ू (आप ) को चले गए
मेरे लिए ये कोई अचम्भा नहीं था क्योंकि मैं दिल्ली विधानसभा चुनाव 2013 में देख चुका था कि जो परिवार सालों से बीजेपी को वोट दे रहे थे उसमे इस बार माँ बाप तो कमल का बटन दबाकर आये थे लेकिन बच्चे झाड़ू चलकर आये थे जिसकी वजह से बीजेपी के हाथ से उसके गढ़ शालीमार बाग़ , रोहिणी जैसी सीटें निकल गयी थी

इसलिए कोई सीटों का आंकड़ा दिए बिना मैं मानता हूँ कि ये पार्टी 8 दिसंबर की तरह 16 मई को चौंका दे तो मुझे हैरत नहीं होगी

Friday, 25 April 2014

कुछ तो सोचकर बोलो बाबा

बड़ी हैरानी हो रही है आजकल बाबा रामदेव की बात सुनकर
बाबा रामदेव को मैने खूब कवर किया उनके आन्दोलन के दौरान
बातें तो उनकी पहले भी  लोगोँ को चुभती थीं लेकिन मर्यादा मे रहतीं थीं
लेकिन आजकल जाने बाबा को क्या हो गया है
शुक्रवार को लखनऊ मे कह डाला कि राहुल गांधी तो हनीमून  मनाने के लिये दलित के घर जाता है
अगर वो किसी दलित की बेटी से शादी कर लेता तो वो भी दौलतमंद हो जाती .......
अब बताइये बाबा के इस अनमोल वचन का क्या अर्थ निकाला जाये ?
चलिए एक बार को मै भूल जाता हूँ कि मै एक पत्रकार  हूँ और मुझे आदत है तिल का ताड़  बनाने क़ी
लेकिन आप भी सोचकर बताइये दलित के घर हनीमून बनाने के इस बयान का क्या अर्थ निकाला जाये ?

अभी कुछ दिन पहले एक इंटरव्यू मे आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल पर हमला करने के जोश मे बोल गये कि
''जितनी भीड़ केजरीवाल को सुनने  बनारस की रैली मे आयी थी न , उतनी भीड़ तो तब आ जाती है जब मैं मूतने के लिये गाड़ी से उतरता हूँ
हद्द हो गयी भाई , माना आपकी केजरीवाल से नहीं बनती या आपकी और केजरीवाल की विचारधारा अलग है लेकिन इस तरह के शब्द एक योगगुरु के मुख से शोभा देते हैं ?
योगी वो होता है जो अपनी इन्द्रियोँ को अपने वश में करके समाज मे एक आदर्श प्रस्तुत करता है
लेकिन आप समाज के सामने ये कैसे उदाहरण रख रहे हैं ?
माना कि आपका समर्थन बीजेपी को है और कांग्रेस हो या फिर आम आदमी पार्टी ये सब आपके निशाने पर रहेंगीं
लेकिन ये विरोध भी कैसा अगर भाषा और शब्द मर्यादा की सीमा रेखा ही लांघ जाये !!

बाबा रामदेव....... देश और दुनिया मे आपके  बहुत से  शिष्य और अनुयायी हैँ जो आपको आदर्श मानकर आपकी इज़्ज़त करते हैं
ऐसी इज़्ज़त जो कोइ रातों रात नहीं कमाई , जाने कितनी मेह्नत और त्याग के बाद ये दिन देखने को मिला है आपको
इसलिए आपसे गुज़ारिश है कि....... कुछ तो सोचकर बोलो बाबा

Friday, 11 April 2014

पहली बार देखा है ऐसा

पहली बार चुनाव आयोग ने अपना चाबुक चलाया है
अमित शाह और आज़म खान को भड़काऊ भाषण देने के चलते
अब चुनाव आयोग ने चुनाव प्रचार पर पाबंदी लगा दी है
अच्छा है वरना चुनाव आयोग की हालत ऐसी हो गयी थी जैसे
परीक्षा के दौरान मास्टरजी आते हैं और पर्चे बाँट देते हैं
और जब परीक्षा के दौरान बच्चे चीटिंग करते हैं या फर्रे चलाते हैं
तो मास्टरजी उस तरफ देखकर हल्का सा खांसते हैं
बच्चे थोड़ा सा सतर्क होकर थोड़ी देर बाद फिर चीटिंग करते हैं या फर्रे चलाते हैं
जब मास्टरजी देखते हैं कि बालक नालायक हैं और ऐसे नहीं मानेंगे तो मास्टरजी उठकर जाकर उस जगह का राउंड मारते हैं
ऐसा करके वो एक बार फिर बच्चों को शरारत करने से रोकते हैं
तीन घंटे के एग्जाम में ऐसा खूब चलता है
ज़्यादा हो तो मास्टर जी जाकर एक आधे का कान पकड़कर मरोड़ते हैं हैं और पूछ लेते हैं की ''पापा क्या करते हैं तेरे ''?
वैसे मास्टरजी पूछते तो ऐसे हैं जैसे उसके पापा से कोई काम निकलवाना हो उनको
जवाब कुछ भी हो मास्टर जी ये कहकर छोड़ देते हैं कि पढ़ाई नहीं करी पूरे साल ?
तीन घंटे में से ढ़ाई घंटे घंटे यही सब चलता है और आखिरी के आधे घंटे में मास्टरजी ना उस तरफ देखते हैं
ना ही बच्चों को मास्टरजी का कोई ख़ास डर रहता है
मास्टरजी सोचते हैं कि कोई नहीं  बच्चा पास हो जाएगा तो मेरा क्या जाएगा
बच्चे को भी पता होता है कि मास्टरजी ने कुछ करना होता तो अब तक कर देते
इसलिए सब कुछ बदस्तूर चलता रहता है
बच्चे बाद में अपने दोस्तों में अपनी शौर्य गाथा सुनाते हैं कि कैसे उन्होंने मास्टरजी को सेट कर दिया
लेकिन जब ये बात मास्टरजी को पता चलती है कि वो बालक मेरा ऐसे मज़ाक उड़ा रहा था
तो एक दिन मास्टरजी को मौका मिलता है तो नक़ल करते वक़्त बच्चे को पकड़ लिया करते हैं
और पेपर कैंसिल कर देते हैं ..... इस एक कार्रवाई से आसपास के और बच्चे सहम जाते हैं
और दोबारा ऐसी हरकत से डरते हैं ....
शायद चुनाव आयोग ने आज कुछ ऐसा ही सन्देश देने की कोशिश की है
वरना अब तक तो बस यही खबर सुनते थे कि चुनाव आयोग ने इस नेता उस नेता को जारी किया नोटिस
चुनाव आयोग नाराज़ , चुनाव आयोग ने नाखुशी ज़ाहिर की वगैरह वगैरह
आज कुछ सॉलिड हुआ है , उम्मीद है कि भाई लोग सुधरेंगे



Monday, 7 April 2014

आप : रणनीति में परिवर्तन



आम आदमी पार्टी इन दिनों कुछ ऐसा कर रही है कि उसके चाहने वाले भी या तो आलोचना में लगे हुए हैं या फिर कह रहे हैं कि पता नहीं ये सब क्या हो रहा है पार्टी में
जैसे कि कांग्रेस के खिलाफ बोलते बोलते अचानक बीजेपी के खिलाफ बोलना शुरू कर दिया जबकि आंदोलन कांग्रेस विरोध से शुरू हुआ था
अमेठी से राहुल गांधी को हराने से ज़यादा ज़रूरी नरेंद्र मोदी को बनारस से हराना हो गया
ऐसे लगने लगा कि 10 साल से देश में कांग्रेस की नहीं बीजेपी कि सरकार थी इसलिए उसका विरोध नहीं करेंगे तो काम कैसे चलेगा
ऐसा सन्देश जा रहा है कि पार्टी अपने मक़सद से भटक गयी है

असल में आम आदमी पार्टी कि ये सब बदली हुई रणनीति का हिस्सा है , लेकिन अजीब सब इसलिए लग रहा है क्योंकि कोई पार्टी अक्सर ऐसा नहीं करती जैसा कि आम आदमी पार्टी करने में लगी हुई है
जब दिल्ली के विधानसभा चुनाव हो रहे थे जो कि पार्टी का पहला इम्तिहान था उस समय पार्टी सकारात्मक प्रचार में लगी थी
कहती थी कि पहली बार ईमानदार पार्टी आई है इसलिए हमको चुनिए , यही है आम आदमी की अपनी पार्टी
इसका मतलब ये था कि पार्टी का लक्ष्य था दिल्ली जीतना और पार्टी बहुत हद तक दिल्ली जीतने में कामयाब रही
अरविन्द केजरीवाल ने मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को जिस तरह से हराया , राखी बिडलान ने राजकुमार चौहान को जिस तरह से शिकस्त दी
या फिर 28 सीट जीतने के बाद अरविन्द केजरीवाल जिस तरह से दिल्ली के मुख्यमंत्री बने ये सब सकारात्मक प्रचार के दम पर हुआ जिसमे लक्ष्य'' जीतना '' था

लेकिन अब पार्टी जिस ट्रैक पर चल रही है उसको कहते हैं नकारात्मक प्रचार
इसके तहत जीतना तो लक्ष्य है ही नहीं बल्कि हराना लक्ष्य है
चाहे नरेंद्र मोदी को बनारस से हराना हो या फिर अमेठी से राहुल गांधी को , नागपुर से नितिन गडकरी को या फिर चांदनी चौक से कपिल सिब्बल को
मेरा अपना निजी तौर पर ये मत है कि अगर अरविन्द केजरीवाल दिल्ली से लोकसभा चुनाव लड़ते तो पार्टी को दिल्ली कि सभी सात और आसपास कि 4  और सीटों पर इसका फायदा मिल सकता था
लेकिन ऐसा तब होता जब अरविन्द का मक़सद केवल सांसद बनना होता हालांकि ये बात भी सही है कि अगर केवल विधायक बन जाना भी मक़सद होता अरविन्द का तो वो शीला दीक्षित के खिलाफ चुनाव लड़ने का जोखिम क्यूँ उठाते ?
आपको बता दूं कि जिस समय अरविन्द केजरीवाल ने शीला दीक्षित के खिलाफ चुनाव लड़ने का फैसला किया था उस समय माना जा रहा था कि अरविन्द ने अपना जीवन दांव पर लगा दिया है क्यूंकि शीला दीक्षित को नई दिल्ली से हारने यानि शेर के जबड़े से शिकार निकाल लाने जैसा था लेकिन अरविन्द ने शिकार निकाल लिया और शीला दीक्षित को उनके घर में घुसकर मात दे दी
इस हिसाब से देखेंगे तो आपको अरविन्द केजरीवाल का बनारस से नरेंद्र मोदी के खिलाफ लड़ना गलत नहीं लगेगा
लेकिन फर्क ये है कि शीला दीक्षित कांग्रेस से थी जो केंद्र और राज्य में सत्ता पर काबिज थी लेकिन मोदी बीजेपी से हैं जो 10 साल से केंद्र में विपक्ष में बैठी हुई है
तो आखिर क्यों वे बीजेपी को अपना सबसे बड़ा दुश्मन बनाये हुए हैं ?
इसका कारण ये हो सकता है कि एक आम धारणा ये है कि कांग्रेस तो पहले से ही बाहर है और बड़ा खिलाड़ी बीजेपी है
तो ऐसे में बीजेपी पर हमला करने से आप को दो फायदे हो सकते हैं पहला तो एंटी बीजेपी/एंटी मोदी वोट अपनी तरफ खिसका लें और दूसरा अपने से बड़े से लड़ने वाले का नाम तो हारने पर भी होता साथ ही अगर मोदी के खिलाफ मुखर आवाज़ उठने से अल्पसंख्यक वोट आप की तरफ आ गया तो कांग्रेस को भारी नुक्सान हो सकता है खासतौर से दिल्ली में मुस्लिम और सिख समुदाय के बीच आप एक विकल्प के तौर पर देखी जा रही है
और बात ये भी है कि कांग्रेस में जितनी सेंध उस रणनीति से लगायी जा सकती थी शायद लग चुकी है अब बाकी कि सेंधमारी बीजेपी या मोदी के खिलाफ बोलकर ही लगायी जा सकती है

अरविन्द केजरीवाल या आम आदमी पार्टी के नकारात्मक प्रचार की हम आलोचना कर सकते हैं लेकिन हमें ध्यान रखना होगा कि हमेशा एक रणनीति काम कर जाए ये ज़रूरी नहीं और वैसे भी केजीरवाल और आप कुछ नया करने के लिए जानी जाती है तो कुछ नया करने में आलोचना तो होगी ही
बेशक़ आम आदमी पार्टी 400 से अधिक सीटों पर उम्मीदवार उतार चुकी है लेकिन असल में उसका लक्ष्य दिल्ली-एनसीआर , पंजाब , हरियाणा , कुछ महाराष्ट्र , हल्का सा कर्नाटक , अमेठी और सबसे बड़ी सीट बनारस है ..... पार्टी सोचती है कि अगर ये मिल जाए तो बस कुछ और हो या न हो क्या फर्क पड़ता है
इसलिए मुझे भी देखना है केजरीवाल की पिछली बार की रणनीति तो कामयाब हो गयी थी
क्या इस बार भी तीर निशाने पर लगेगा ?


Friday, 28 March 2014

केजरीवाल को लेकर क्या सोचती है आम जनता?


लोकसभा चुनाव 2014 के सिलसिले में मैं दिल्ली के अलग-अलग हिस्सों में घूमता रहा और हाल ही में बनारस गया था। जिस ट्रेन से मैं दिल्ली से बनारस जा रहा था, उसी से अरविंद केजरीवाल भी जा रहे थे - बनारस से नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने का ऐलान करने।
ट्रेन में बहुत-से लोग आकर अरविंद केजरीवाल से मिले, और वे सब आम लोग ही थे। कोई उन्हें शुभकामना दे रहा था, कोई कह रहा था कि 'आप संघर्ष करें, हम आपके साथ हैं...' लेकिन इन सबके बीच बड़ी संख्या में लोग केजरीवाल के पास आकर यह भी कह रहे थे कि वे केजरीवाल के फैन रहे हैं और अभी तक तो केजरीवाल के समर्थक थे या फिर उन्होंने दिल्ली में 'आप' को वोट डाला था, लेकिन जिस तरह केजरीवाल सरकार ने इस्तीफा दिया, उससे उनके मन में कुछ शक पैदा हुआ है।

इस बात को समझने की ज़रूरत है कि अगर लोग केजरीवाल के मुंह पर यह बोल रहे हैं तो इसका मतलब यह है कि आम आदमी पार्टी से उनका मोहभंग होता दिख रहा है। केजरीवाल ने ज़्यादातर लोगों के सवालों के जवाब देने को कोशिश की, लेकिन फिर मुझे याद आया कि मैं दिल्ली में जितनी भी जगह पर घूम रहा हूं, वहां भी आम आदमी पार्टी के लिए चिंता की बात यह है कि उनके लिए कुछ हद तक लोगों में नाराज़गी दिखाई दे रही है। नाराज़गी इस बात की कि उन्होंने 49 दिन में सरकार क्यों गिराई और छोड़कर भाग क्यों गए...?

बेशक आम आदमी पार्टी इसके लिए दलीलें दे रही है और बता रही है कि उन्होंने कुर्बानी दी है, त्याग किया है और कहीं छोड़कर नहीं भागे हैं, फिर लौटकर आएंगे, लेकिन आम जनता की समस्या दूसरी है और बेहद वाजिब है। सरकार के न रहने से अब सारे काम रुक गए हैं, और लोग अपनी समस्या लेकर किसके पास जाएं...? जो बिजली बिल कम किए जाने का वादा था, वह तक अधूरा रह गया है। जिन लोगों ने केजरीवाल के कहने पर बिल नहीं दिए, उन पर सारे बिल एक साथ देने का दबाव अलग से है।

अफसर तो वैसे भी कभी जनता के काम में दिलचस्पी नहीं दिखाते थे, तो अब राष्ट्रपति शासन में नौकरशाही किस आम आदमी का दर्द समझती होगी...?

विधायकों के पास जाते भी हैं तो विधायकों के काम करने की एक सीमा होती है। जब तक केजरीवाल मुख्यमंत्री थे, विधायकों के कहने पर बहुत-से ऐसे काम हो जाया करते थे, जो उनके अधिकार क्षेत्र में तो नहीं आते थे, लेकिन आम जनता की सहूलियत के होते थे। लेकिन जब सरकार ही नहीं रही तो विधायक की ताकत भी जैसे चली गई, जबकि उस पर जनता की उम्मीदों का दबाव इतना ज़्यादा है, इसको कैसे संभालें, कुछ पता नहीं। इन नौजवान नेताओं को वैसे भी ज़्यादा अनुभव नहीं था, ऐसे हालात से निपटने का। इस कारण आम आदमी पार्टी के लिए इन दिनों सबसे बड़ी नकारात्मकता इसी को लेकर है।
जब मैंने अरविंद केजरीवाल से इसको लेकर सवाल किया तो उन्होंने इसका दोष कांग्रेस और बीजेपी पर डाल दिया। शायद इसलिए, क्योंकि जो चाल केजरीवाल चल चुके हैं, अब उसको वापस लेने का कोई जरिया नहीं है। लेकिन इसका एक मतलब यह भी है कि केजरीवाल अपनी रणनीति को लेकर ऐसे संशयविहीन हो चुके हैं कि वह दूसरों की प्रतिक्रियाओं से बेपरवाह नज़र आते हैं। इससे यह ख़तरा दिखाई देता है कि 'आप' आलोचनाओं को नज़रअंदाज़ करने लगी है।

हालांकि केजरीवाल का मूल आधार अब भी बचा हुआ है, और उन्हें आज भी जनता ईमानदार मानती है। उनकी अपनी छवि ऐसी 'टैफलॉन कोटिंग' वाली है, जिस पर करप्शन जैसा कोई आरोप चिपक नहीं पाता। यही नहीं, जहां तक मैं दिल्ली घूमा, लोगों ने मुझे बताया कि यह बात सच है कि जब केजरीवाल की सरकार थी, तब भ्रष्टाचार घटा था।

व्यापारी, ऑटो, टैम्पो ड्राइवर - सबका अनुभव यही था कि पुलिस उनसे उगाही से बचने लगी थी, इसलिए अब चुनाव होंगे तो वे फिर केजरीवाल को वोट देंगे। और एक धारणा दिल्ली के आम लोगों में यह भी दिख रही है कि लोकसभा चुनाव 2014 में वे मोदी को समर्थन दें और जब दोबारा दिल्ली में चुनाव हों तो फिर केजरीवाल को वोट दें।
थोड़ी और पड़ताल की कोशिश की तो समझ में आया कि दिल्ली में जो सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा तबका है, वह आम आदमी पार्टी का ऐसा मज़बूत हिस्सा है, जिस पर केजरीवाल का असर अब भी बना हुआ है। याद रखना ज़रूरी है कि यह तबका कल तक कांग्रेस का वोटबैंक था, जो आज आम आदमी पार्टी का बन चुका है। लेकिन मिडिल क्लास और अपर मिडिल क्लास में 'आप' को लेकर नाराज़गी है। आम आदमी पार्टी के काम करने के तरीके को लेकर यहां वोटों में सेंध लग सकती है।

लेकिन जानकार यह भी मान रहे हैं कि आम आदमी पार्टी इस सेंधमारी की भरपाई मुस्लिम वोटों से कर सकती है, क्योंकि केजरीवाल मोदी के खिलाफ झंडा बुलंद किए हुए हैं और दिल्ली में कांग्रेस तीसरे नंबर पर दिख रही है। ऐसे में मुसलमान इस बार आम आदमी पार्टी की तरफ जा सकते हैं। दिसंबर, 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 34 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि आम आदमी पार्टी को करीब 30 फीसदी, लेकिन इसमें ज़्यादा मुस्लिम वोट नहीं थे। कांग्रेस को 25 प्रतिशत वोट मिले थे और उसके आठ में से चार विधायक मुसलमान हैं।

जानकार यह भी मान रहे हैं कि जिस तरह से केजरीवाल ने सरकार में रहते हुए वर्ष 1984 में हुए सिख विरोधी हिंसा के लिए विशेष जांच दल बनाने का ऐलान किया, उससे सिखों में भी आम आदमी पार्टी की साख बढ़ी है। वैसे सिख-बहुल सीटों से 'आप' को पहले भी अच्छा सपोर्ट मिला था और तीन सिख विधायक जीतकर आए थे।

लेकिन यह अभी का माहौल है। 31 मार्च से केजरीवाल वापस दिल्ली में प्रचार के लिए उतरेंगे और रोज़ एक लोकसभा क्षेत्र में रोड शो और जनसभा करेंगे। आम आदमी पार्टी को इससे सबसे ज़्यादा उम्मीद है, क्योंकि नवंबर में रोड शो करके ही केजरीवाल ने पार्टी के लिए माहौल बनाया था और इस बार भी वह कोशिश करेंगे कि आम जनता को अपने जवाबों से संतुष्ट करें। दिल्ली में 10 अप्रैल को वोट है...

 

Sunday, 16 March 2014

मुख्यमंत्री और दिल्ली

कहाँ जा रहे हैं दिल्ली के मुख्यमंत्री ?


दिल्ली का भी क्या नसीब है
जब तक मुख्यमंत्री थी तो 15 साल से ऐसे ऐसे जमी हुई थी जैसे फेविकोल का मज़बूत हो जो टूटता नहीं दिखा
लेकिन 2013 के चुनाव के बाद से दिल्ली का नसीब ही बदल गया
सबसे पहले तो आम आदमी पार्टी के अरविन्द केजरीवाल ने शीला दीक्षित को उनके घर में घुसकर करारी शिकस्त
उसके बाद उनपर भ्रष्टाचार के मामलों में FIR दर्ज करवा दी
15 साल से दिल्ली 
की  गद्दी पर आसीन थी शीला दीक्षित
लेकिन अरविन्द केजरीवाल के हाथों मिली एक हार ने उनका राजनैतिक भविष्य ही ख़तम कर दिया
आखिर उनको केरल का राज्यपाल बनाकर दिल्ली को अलविदा कहना पड़ा
किसी ने सोचा न था कि दिल्ली पर राज करने वाली मुख्यमंत्री को ऐसे दिल्ली छोड़ना होगा


अब बात करिये अरविन्द केजरीवाल की
जो देश के इतिहास के इतिहास के पहले ऐसे मुख्यमंत्री बने
जो बने नहीं बल्कि बनवाये गए, केजरीवाल बोले कि मैं नहीं बनता
लेकिन कांग्रेस और बीजेपी बोले कि कैसे नहीं बनेगा, तू ही बनेगा मुख्यमंत्री
लिहाज़ा अरविन्द केजरीवाल 28 दिसंबर को दिल्ली के 7वे मुख्यकमंत्री बन गए
लेकिन उनकी रफ़्तार इतनी ज़यादा थी कि 14 फरवरी को सरकार से इस्तीफा देकर चल दिए
और अब नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने बनारस कि और कूच करने वाले हैं
यानि दिल्ली के ये भी मुख्यमंत्री से दिल्ली से जा रहे हैं


और अब बात करिये उस शख्स की दिल्ली के अंदर 20 साल पहले मंत्री बना था
दिल्ली में बीजेपी का मुख्यमंत्री उम्मीदवार भी था
दिल्ली में बीजेपी सबसे ज़यादा सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी उसके नेतृत्व में बनी
लेकिन उसकी किस्मत देखो वो मुख्यमंत्री नहीं बन पाया
डॉ  हर्षवर्धन एक साफ़ छवि और शांत स्वभाव वाले व्यक्ति माने जाते हैं
अरविन्द केजरीवाल के इस्तीफ़ा देने के बाद माना जा रहा था कि लोकसभा चुनाव में NDA
कि सरकार अगर बन जाती है तो दिल्ली में 2-4 विधायक इधर उधर से तोड़कर डॉ  हर्षवर्धन
दिल्ली के मुख्यमंत्री बन सकते हैं लेकिन शनिवार रात को इस अटकल पर पानी फिरता दिखा
बीजेपी ने डॉ साहब को चांदनी चौक से उम्मीदवार बनाया है
यानि अब वो भी दिल्ली कि राजनीती से केंद्र कि राजनीती कि और बढ़ा चुके हैं

अब ज़रा दिल्ली के इन तीन मुख्यमंत्री या मुख्यमंत्री उम्मीदवार या भावी मुख्यमंत्री को फिर से देखें जो असल में दिल्ली का चेहरा हैं

शीला दीक्षित - राज्यपाल बनकर जा चुकी हैं , उम्र भी बहुत हो चुकी है , कांग्रेस की दिल्ली में अभी वापसी में समय लगेगा और वापसी हो भी जाए तब भी  शीला दीक्षित की  कहानी कम से कम दिल्ली की राजनीती में मुश्किल लगती है

डॉ हर्षवर्धन - चांदनी चौक से लोकसभा का चुनाव लड़ रहे हैं , जीत गए तो संसद में जायेंगे और हो सकता है कि केंद्र के मंत्री भी बन जाएँ (सारे ओपिनियन पोल NDA को बढ़त दिखा रहे हैं और हर्षवर्धन दिल्ली और बीजेपी के पुराने और वरिष्ठ  नेता हैं) और उसके बाद बीजेपी कोई और चेहरा तलाशेगी दिल्ली के लिए , लेकिन अगर हार गए मुझे इस बात पर शक़ है कि वो मुख्यमंत्री उम्मीदवार रह पाएंगे क्योंकि हारने के बाद उनके विरोधी सक्रिय होकर उनके नेतृत्व पर ये कहकर सवाल उठा सकते हैं कि जो मोदीजी कि हवा होने के बाद भी नहीं जीत सका वो नेता कैसा ?
यहाँ बीजेपी के साथ समस्या ये है कि उसके पास दावेदार बहुत हैं चाहे वो मुख्यमंत्री पद हो या संसद और विधायक का टिकट

अरविन्द केजरीवाल - मोदी से लड़ने दिल्ली छोड़कर बनारस जा रहे हैं, राजनीति और बनारस को समझने वाले ये तो मान रहे हैं कि टक्कर अच्छी हो सकती है लेकिन ये नहीं मान रहे कि केजरीवाल जीत सकते हैं , चलिए फिर भी एक बार को मानकर चलते हैं कि केजरीवाल बनारस से जीत गए तो भी क्या? वो संसद में क्या करेंगे, सरकार तो बननी नही हैं अपने दम पर और पार्टी गठबंधन की राजनीती का विरोध अभी तक करती आयी है (कल क्या हो कौन जानता है ?, राजनीति तो वक़्त और हालत के हिसाब से पहली भी बदली है और आगे भी बदल सकती है) और अगर ये मान लेते हैं कि किसी का समर्थन करके सरकार बनवा देती है आम आदमी पार्टी तो भी केजरीवाल संसद में में क्या करेंगे , वो वापस दिल्ली ही आयेंगे …… और मान लो कि केजरीवाल हार गए तो भी वो वापस दिल्ली ही आयेंगे और दोबारा चुनाव कि सूरत में फिर दिल्ली के मुख्यमंत्री पद की  दावेदारी करेंगे

अब ये तो मेरा अपना आंकलन है बाकी तो आप लोग और जनता ज़यादा जानती है, और हाँ अगर कुछ स्थिति और बनी या हालत बदले तो मैं लिखने के लिए फिर आउंगा

Saturday, 15 March 2014

मीडिया पर महाभारत

 मीडिया पर महाभारत

सोशल मीडिया नाम की रणभूमि-ए -कुरुक्षेत्र  में दो सेनाएं हैं
एक तो है मोदी सेना और दूसरी है केजरीवाल सेना
ये दोनों ही सेनाएं इस समय राष्ट्रवाद का झंडा उठायें हुए हैं
दोनों ही देश में परिवर्तन और बदलाव कि बयार बहाने में लगे हैं
इन दोनों के मुदद्दे भी असल में एक से ही हैं
जैसे कि करप्शन हटाओ , वंशवाद हटाओ देश बचाओ देश बचाओ
पर मोदी सेना कहती है कांग्रेस हटाओ देश बचाओ
और केजरीवाल सेना कहती है कांग्रेस-बीजेपी दोनों हटाओ और देश बचाओ
मुद्दे इन दोनों के भले एक से दिखते हो लेकिन ये कभी एक दूसरे से सहमत नहीं हो सकते
इन दोनों का एक बहुत बड़ा और प्रिय मुद्दा है
'पेड मीडिया', दोनों का ही ये आरोप सदा रहता है कि मीडिया हमको नहीं दिखा रहा
मोदी सेना कि शिकायत कि मीडिया राहुल गांधी और केजरीवाल को इतना दिखा रहा है लेकिन हमारे मोदीजी को नहीं
और केजरीवाल सेना कहती है मोदी और राहुल कि रैली इतनी दिखाई जा रही है हमारे लेकिन केजरीवाल की नहीं
अब सवाल ये है कि ये दोनों एक साथ सही कैसे हो सकते हैं ?
इस बीच अब राहुल सेना भी धीरे धीरे नज़र आ रही है हालांकि सोशल मीडिया नाम के इस कुरुक्षेत्र में
उनकी सेना कि मौजूदगी ऐसी है जैसे कोई सेनापति अपनी एक छोटी सी टुकड़ी को अपने दुश्मन कि हलचल पर नज़र के लिए भेजता है
लेकिन इस रणभूमि के बाहर बहुत से कांग्रेसी नेता मीडिया से गज़ब किलसे हुए हैं
उनकी भी शिकायत है कि आप बस मोदी और केजरीवाल ही दिखा रहे हो देश की सबसे पुरानी पार्टी को आप नज़रअंदाज़ कैसे कर सकते हैं ?
उनके मुताबिक़ भी मीडिया बिका हुआ है और कांग्रेस विरोधी एजेंडा पर लगा हु आ है
ये तीन ही नहीं हैं , उत्तर प्रदेश की बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी की राय भी इससे कुछ ख़ास अलग है क्या?
और हाँ सालों से देश में संघर्ष कर रहे लाल सलाम वाले वाम दल वालों से भी ज़रा पूछ लो उनकी राय क्या है इस बारे में ..... ज़यादा अलग नहीं मिलेगी
अब सवाल ये है कि इतने सारे लोग एक साथ सही कैसे हो सकते हैं

यहाँ एक किस्सा याद आया जो फिट बैठता है इस मौके पर
एक दफा मायावती जब उत्तर प्रदेश कि मुख्यमंत्री थी तो नॉएडा एक कार्यक्रम में आयी
शायद उनके महत्वाकांक्षी मूर्ति वाले का कोई शिलान्यास या उदघाटन रहा होगा
उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री के लिए नॉएडा आना शायद शुभ नहीं माना जाता
मुलायम सिंह यादव इससे पहले मुख्यमंत्री रहे लेकिन नहीं कभी नॉएडा
इसलिए जब बहनजी आयी तो टीवी चैनल्स ने उनको अच्छे से कवर किया चर्चा के लिए राजनैतिक मेहमान भी बुलाये
चर्चा मायावती के बोलने के बाद होनी थी एक न्यूज़ चैनल पर लेकिन मायावती ने तय वक़्त के बाद भाषण दिया
जिससे कि स्टूडियो में बैठे मेहमान को ज़यादा इंतज़ार करना पड़ा
तो भाषण के बाद जैसे ही चर्चा शुरू हुई तो एक पॉलिटिकल पार्टी के प्रवता ने कहा
''मैं पहली बार देख रहा हूँ कि एक मुख्यमंत्री को एक नेशनल न्यूज़ चैनल में इतना समय देकर लाइव दिखाया जा रहा है ''
एंकर भी बड़ा नामी और ज्ञानी था उसने भी तपाक से जवाब दिया
''ये वही न्यूज़ चैनल्स हैं जो एक राष्ट्रीय पार्टी के महासचिव को कवर करने मीलों दूर तक अपनी ओबी वैन उसके पीछे लगा देते हैं ''
उम्मीद है आप समझ गए होंगे कि ये किस्सा क्या है
नहीं भी समझे तो कोई बात नहीं , आपको मेरी बात वैसे तो समझ आ ही गयी होगी

यहाँ मैं ये ज़रूर कहना चाहुंगा कि मैं किसी बात को या किसी आरोप को नकार नहीं रहा
हर समाज में सही और गलत , अच्छा और बुरा , ईमानदार और बेईमान दोनों तरह के लोग होते हैं
बल्कि मैं तो यहाँ तक कहना चाहूंगा कि मीडिया में जितनी बड़ी समस्या होने के आरोप लग रहे हैं
समस्या उससे ज़यादा गम्भीर है, आरोप तो केवल आसानी से सरलता से ये लग रहे है ना कि मीडिया बिकाऊ है
ठीक है इस बात की जांच से मना कौन कर रहा है ?
लेकिन इस बात को समझिये कि जनता कि नज़र में मीडिया 'मीडिया ' ही होता है
एक दो या चार चैनल नहीं , बड़े शहर में रहने वाले तो अलग अलग अखबारों या चैनल में फर्क कर लेते हैं
लेकिन छोटे शहरों और क़स्बों में रहना वाला आदमी इतनी गहराई में नहीं जाता
उसके लिए तो पूरा मीडिया एक ही होता है
उसको ही नेता डिस्क्रेडिट कर देंगे तो उन ईमानदारों का क्या होगा जो पत्रकारिता के माध्यम से देश के असल मुद्दे उठा रहे हैं ?


समस्या जो आपको दिख रही है केवल वो ही नहीं है
समस्या ये भी ये भी है कि दूर दराज में फैले स्ट्रिंगर्स की हालत क्या है?
मीडिया में पिछले दिनों में लगातार हो रही छंटनी पर कितनों का आक्रोश फूटा ?
एक मीडिया हाउस कितने राज्यों में अपना 'एक' ऑफिस चला पा रहा है?

मैं ये भी मानता हूँ कि देश में लोग मीडिया से नाराज़ हैं
मानता हूँ कि मीडिया का काम करने का तरीका ऐसा रहा कि आम जनता नाराज़ ही होगी
हम ऐसी कितनी खबरें करते हैं हैं जिसका सीधा फायदा आम जनता या आम आदमी को मिलता होगा
ऐसा हम कितनी बार करते हैं कि एक आम अनजान आदमी ने हमसे मदद मांगी और हम कर पाये
देश में जनता मीडिया से इतनी नाराज़ क्यूँ है कि जब जब कोई नेता मीडिया
 का मज़ाक बनाता या हमला करता है तो पब्लिक खुश होकर तालियां पिटती है

असल में बात ये है कि आज़ादी के बाद से अब तक ना तो नेता ने जनता की कोई सुनी
ना ही कोई सरकारी दफ्तर में बैठे अधिकारियों या बाबुओं ने
किसी गरीब के साथ कोई घटना हो जाए तो थाने में जाकर उसके साथ ऐसा सलूक होता हैं जैसे वो 'झूठ' बोलने थाने आया हो
और अदालतों के चक्कर में पड़कर तो ज़माने गुज़र जाते हैं लेकिन इन्साफ नहीं मिलता , मिलती है तो सिर्फ तारीख

अब ये लोकतंत्र के तीन खम्बे तो हो गए लोकतंत्र का चौथा खम्बा क्या करता रहा है ये तो हम देख ही रहे हैं
हम आम जनता कि कितनी बात सुन पा रहे हैं दिल पे हाथ रखकर सोचिये

समस्याओं से कौन इनकार कर रहा है
लेकिन इस सबके बावजूद मैं मानता हूँ कि समय समय पर मीडिया  ने बहुत से सकारात्मक काम भी किए
ऐसे काम किये जिससे लोकतंत्र मज़बूत हुआ, कमज़ोर को ताक़त दी , बलवान पर कड़ी नज़र रखी

आलोचना कीजिये खूब जमकर कीजिये लेकिन भाषा और शब्दों का चयन भी अच्छा रखें
कृपया सिस्टम को तोड़िये मत, माना सिस्टम में दिक्कत है
लेकिन ये सिस्टम है तो हम सब हैं , वरना आज़ाद तो और भी देश हुए हैं,  कहाँ पहुंचे हैं वो , और वहाँ के नागरिकों को कितनी आज़ादी है